Tuesday, April 27, 2010

संत गोस्वामी तुलसीदासजी के पद

तू दयालु दीन हौं
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी॥
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो।
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात-मात, गुरु-सखा, तू सब विधि हितु मेरो॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै॥
तुलसीकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद भगवत् भक्ति की सर्वोच्चता को दर्शाता है। भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं। भगवान् से बडा दयालु और दानी कौन हो सकता है। प्रभु पापों का हरण करनेवाले हैं। इस पद के माध्यम से तुलसीदास भगवान् व भक्त के बीच संबंध की व्याख्या कर रहे हैं।
तजि चरन तुम्हारे
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम अधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड, जवन कवन सुर तारे॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस विचारे।
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे॥
तुलसीदास का यह पद विनय पत्रिका से उद्धृत है।
उदार जग माहीं
ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो॥
तुलसीदास की विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद भगवान् की उदारता का बखान करता है। भगवान् श्रीराम बिना सेवा के दीनों पर द्रवित हो जाते हैं। जो ज्ञानियों व मुनियों के लिये भी दुर्लभ है वह गति उन्होंने सबरी को दी।
जाके प्रिय न राम बैदेही
जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषण बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥
नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासो होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥
तुलसीदास जी भगवान् श्रीराम के परम भक्त थे। विनय पत्रिका से उद्धृत इस पद में वह कहते हैं कि जिसको सीताराम से प्रेम नहीं है वह यदि परम प्रिय भी है तो उसे एकदम छोड देना चाहिये। तुलसीदास जी ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। प्रह्लाद, विभीषण, भरत, बलि, ब्रज की वनिता आदि ने अपने प्रियजनों का त्याग कर दिया।
रघुबर तुमको मेरी लाज
रघुबर तुमको मेरी लाज।
सदा सदा मैं सरन तिहारी तुमहि गरीबनिवाज॥
पतित उधारन बिरद तुम्हारो, स्त्रवनन सुनी अवाज।
हौं तो पतित पुरातन कहिये, पार उतारो जहाज॥
अघ-खंडन दुख-भंजन जनके यही तिहारो काज।
तुलसिदास पर किरपा कीजै, भगति-दान देहु आज॥
यह पद तुलसीदास जी के भजन संग्रह से लिया गया है। इसमें तुलसीदास ने भगवान् से भक्ति देने की माँग की है।
रामचरण सुखदाई
भज मन रामचरन सुखदाई।
जिहि चरनन से निकसी सुरसरि संकर जटा समाई।
जटासंकरी नाम परयो है, त्रिभुवन तारन आई॥
जिन चरनन की चरनपादुका भरत रह्यो लव लाई।
सोइ चरन केवट धोइ लीने तब हरि नाव चलाई।
सोइ चरन संतन जन सेवत सदा रहत सुखदाई।
सोई चरन गौतम ऋषि-नारी परसि परमपद पाई॥
दंडकबन प्रभु पावन कीन्हो ऋषियन त्रास मिटाई।
सोई प्रभु त्रिलोक के स्वामी कनक मृगा सँग धाई॥
कपि सुग्रीव बंधु भय-ब्याकुल तिन जय छत्र फिराई।
रिपु को अनुज बिभीषन निसिचर परसत लंका पाई॥
सिव सनकादिक अरु ब्रह्मादिक सेष सहस मुख गाई।
तुलसिदास मारुत-सुत की प्रभु निज मुख करत बडाई॥
तुलसीकृत भजन संग्रह से उद्धृत है यह पद। सभी कष्टों का निवारण प्रभु की शरणागति से हो जाता है। तुलसीदास जी का यह परम लोकप्रिय पद उनके भजन संग्रह से उद्धृत है। भगवान् राम का चरण सुखदायी है। इसी चरण से गंगा निकलकर भगवान् शंकर की जटा में समाई थी। भगवत् चरण की महत्ता का इतना सुंदर वर्णन तुलसीदास से ही संभव है। राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर॥
भगवान् श्रीरामजी की बायीं और श्रीजानकीजी हैं और दाहिनी ओर श्रीलक्ष्मणजी हैं-यह ध्यान सम्पूर्णरूप से कल्याणमय है। तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरे लिये तो यह मनमाना फल देनेवाला कल्पवृक्ष ही है।
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो मुखरूपी दरवाजे की देहली (जीभ) पर रामनामरूपी मणिदीप (नित्य प्रकाशमय) रख दो अर्थात् जीभ द्वारा अखण्डरूप से श्रीराम-नाम का जप करते रहो।
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥
इस पद में तुलसीदास जी के अद्भुत भक्ति भाव का दर्शन होता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी के नाम (राम) के दोनों अक्षरों में एक र तो (रेफ के रूप में) सब वर्णो के मस्तक पर छत्र की भाँति विराजता है और दूसरा म (अनुस्वार के रूप में) सबके ऊपर मुकुट-मणि के समान सुशोभित होता है।
नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥
श्रीरामजी का नाम अङ्क है और सब साधन शून्य (0) हैं। अङ्क न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं लगता, परन्तु शून्य के पहले अङ्क आने पर वे दसगुने हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि रामनाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दसगुने लाभदायक हो जाते हैं, परन्तु रामनाम से हीन जो साधन होता है वह कुछ भी फल नहीं देता।
राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद पालिहि दलि सुरसाल॥
श्रीरामनाम नृसिंह भगवान् हैं, कलियुग हिरण्यकशिपु और श्रीरामनाम का जप करनेवाले भक्तजन प्रह्लाद के समान हैं। यह रामनामरूपी नृसिंह भगवान् देवताओं को दु:ख देनेवाले हिरण्यकशिपु को (भक्ति के बाधक कलियुग को) मारकर रक्षा करेगा।
राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास॥
तुलसीदासजी यही माँगते हैं कि मेरा एकमात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरणमात्र से ही शुभ मङ्गल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस रामनाम में ही विश्वास रहे।
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव मीर॥
तुलसीदासजी कहते हैं-हे रघुवीर! मेरे समान तो कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनबन्धु नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! जन्म-मरण के महान् भय का नाश कीजिये।
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सब लोग मुझे श्रीरामजी का दास कहते हैं और मैं भी बिना लज्जा-संकोच के कहलाता भी हूँ (कहनेवालों का विरोध नहीं करता)। कृपालु श्रीरामजी इस उपहास को सहते हैं कि श्रीजानकीनाथजी-सरीखे स्वामी का तुलसीदास-सा सेवक है।
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥
एक ही भरोसा है, एक ही बल है, एक ही आशा है और एक ही विश्वास है। एक रामरूपी श्यामघन (मेघ) के लिये ही तुलसीदास चातक बना हुआ है।
तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबहीं तें होइ।
लहै बडाई देवता इष्टदेव जब होइ॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जप, तप, नेम तथा व्रत आदि सब साधन सभी से बन सकते है, परन्तु मनुष्य बडाई तब पाता है, जब वह देवता (भगवान्) को अपना [एकमात्र] इष्टदेव-प्रेम का देवता बना लेता है।
नीच निचाइ नहि तजइ सज्जनहू के संग।
तुलसी चंदन बिटप बसि बिनु बिष भए न भुअंग॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि सज्जन का सङ्ग होने पर भी नीच मनुष्य अपनी नीचता को नहीं छोडता। चन्दन के वृक्षों में निवास करके भी साँप विषरहित नहीं हुए।
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ समरताँ गरल सराहिअ मीचु॥
भला आदमी अपनी भलाई से और नीच अपनी नीचता से ही शोभा पाता है। अमृत की प्रशंसा इसलिये की जाती है कि वह अमरत्व प्रदान करता है, और विष वही सराहनीय है जिससे शीघ्र और सहज ही मृत्यु हो जाय।
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥
जो शरणागत की रक्षा करने में अपना अहित सोचकर उसका त्याग कर देते हैं, वे मनुष्य पामर (क्षुद्र) और पापमय हैं और उनका मुख देखने से भी हानि होती है। तुलसीदास जी ने इस पद के माध्यम से भगवान् की शरणागतवत्सलता का उदाहरण दिया है। रावण द्वारा अपमानित किये जाने पर विभीषण भगवान् श्रीराम की शरण में सिंधु तट पर आता है। सुग्रीव एवं कई अन्य वानर योद्धा भगवान् को यह सलाह देते हैं कि प्रभु! विभीषण रावण का भाई है, उसको शरण देना ठीक नहीं होगा। लेकिन शरणागत वत्सल भगवान् श्रीराम ने कहा कि शरण में आनेवालों को मैं किसी भी स्थिति में छोड नहीं सकता।
मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।
लहेऊ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥
जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वभाव से ही सिर चढाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत् में जन्म लेना व्यर्थ ही है।
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥
यदि मन्त्री, वैद्य और गुरु अप्रसन्नता के भय से या स्वार्थसाधन की आशा से हित की बात न कहकर हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं तो राज्य, धर्म और शरीर-इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है।
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रधान (राजा) को मुख के समान होना चाहिये, जो खाने-पीने के लिये तो एक ही है; परंतु विवेक के साथ समस्त अङ्गों का पालन-पोषण करता है।
फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥
तुलसीदासजी कहते हैं यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेंत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार यदि ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिल जायँ तो भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं होता।
दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग।
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्राण के समान प्यारे होने पर भी बहुत दिनों के रोगी, दरिद्र, कटु वचन बोलनेवाले और लालची-ये चारों निरादर के योग्य ही हो जाते हैं।
तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।
जो बिचारि ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि वही पुरुष साम‌र्थ्यवान्, बुद्धिमान, पुण्यात्मा, साधु और चतुर है जो आय के अनुमान से ही व्यय करता है और जगत् में विचारपूर्वक व्यवहार करता है।
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पै ताहि तहाँ लै जाइ॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसी होनहार होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह स्वयं उसके पास आती है या उसे वहाँ ले जाती है।
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का यह दृढ मत है कि जिनको शिवजी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं अथवा जो शिवजी से विरोध रखते हैं और मेरे दास बनना चाहते हैं, वे मनुष्य एक कल्पतक घोर नरक में पडे रहते हैं। अतएव श्रीशंकरजी और श्रीरामजी में कोई ऊंच-नीच का भेद नहीं मानना चाहिये।

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