tag:blogger.com,1999:blog-13337927111782949622024-03-08T14:02:04.167-08:00संत कबीरजय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.comBlogger15125tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-67435941943057197602010-04-27T10:18:00.001-07:002010-04-27T10:18:19.015-07:00रसखान के पद<b style="color: red;"><span>गोकुल गांव के ग्वारन<br />
मानुष हौं तो वहीं रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।<br />
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥<br />
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।<br />
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन॥<br />
यह पद रसखान के भजन संग्रह से उद्धृत है। कृष्ण भक्त रसखान कहते हैं कि यदि मनुष्य के रूप में जन्म लें तो गोकुल के ग्वाला बनकर आएं। पशु के रूप में नंद की गाय बनें। पत्थर हों तो गोवर्धन पर्वत का जिसे कृष्ण अपनी अंगुली पर उठाया और पक्षी के रूप में जन्म लें तो यमुना के किनारे उस कदम्ब की डाल पर बसेरा हो जहाँ श्रीकृष्ण ने लीला की थी।<br />
राजतिहूं पुरकौ तजि डारौं<br />
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुरकौ तजि डारौं।<br />
आठहु सिद्धि नवो निधिकौ सुख, नन्द की गाइ चराइ बिसारौं॥<br />
रसखानि, कबों इन आँखिनसो, ब्रजके बन-बाग तडाग निहारौं।<br />
कोटिक हों कलधौतके धाम, करील की कुञ्जन ऊपर बारौं॥<br />
यह पद रसखान के भजन संग्रह से उद्धृत है। रसखान कहते हैं कि बालकृष्ण की उस लकुटी काँवरिया पर तीनों लोकों का राज्य भी छोड दूं। नन्द की गाय यदि चराने को मिले तो अष्टसिद्धि व नवनिधि का सुख भी भुला दूं।<br />
सिर सुन्दर चोटी<br />
धूरि-भरे अति सोभित स्यामजु, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।<br />
खेलत-खात फिरैं अँगनाँ, पगपैजनी बाजतीं, पीरी कछोटी॥<br />
वा छबिकों रसखानि बिलोकत, बारत कामकलानिधि-कोटी।<br />
कागके भाग कहा कहिए, हरि-हाथसों लै गयो माखन-रोटी॥<br />
रसखान का यह पद उनके भजन संग्रह से उद्धृत है।<br />
जु वही मन भायौ<br />
प्रान वही जु रहैं रिझि वा पर, रूप वही जिहिं वाहि रिझायौ।<br />
सीस वही जिन वे परसे पद अंग वहीं जिन वा परसायौ॥<br />
दूध वही जु दुहायो वही सों, दही सु सही जु वही ढुरकायौ।<br />
और कहा लौं कहौं रसखान री भाव वही जु वही मन भायौ॥<br />
रसखान का यह परम लोकप्रिय पद है। यह उनके भजन संग्रह से उद्धृत है।<br />
छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं<br />
सेस, महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।<br />
जाहि अनादि, अनन्त, अखण्ड, अछेद, अभेद सुबेद बतावैं॥<br />
नारद-से सुक ब्यास रटैं, पचिहारे, तऊ पुनि पार न पावैं।<br />
ताहि अहीरकी छोहरियाँ, छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं॥<br />
रसखान का यह पद भजन संग्रह से उद्धृत है।</span></b>जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-9759775116601338932010-04-27T10:16:00.001-07:002010-04-27T10:16:29.491-07:00सूरदास के पद: विनयपत्रिका<div style="color: red;"><b><span>सकल सुख के कारन<br />
भजि मन नंद नंदन चरन।<br />
परम पंकज अति मनोहर सकल सुख के करन॥<br />
सनक संकर ध्यान धारत निगम आगम बरन।<br />
सेस सारद रिषय नारद संत चिंतन सरन॥<br />
पद-पराग प्रताप दुर्लभ रमा कौ हित करन।<br />
परसि गंगा भई पावन तिहूं पुर धन घरन॥<br />
चित्त चिंतन करत जग अघ हरत तारन तरन।<br />
गए तरि लै नाम केते पतित हरि-पुर धरन॥<br />
जासु पद रज परस गौतम नारि गति उद्धरन।<br />
जासु महिमा प्रगति केवट धोइ पग सिर धरन॥<br />
कृष्न पद मकरंद पावन और नहिं सरबरन।<br />
सूर भजि चरनार बिंदनि मिटै जीवन मरन॥<br />
राग केदार में निबद्ध सूरदास जी का यह भक्तिप्रधान पद है। भगवान् का स्मरण सभी दु:खों का नाश करनेवाला है। इस पद में सूरदास कहते हैं कि अरे मन! नंदपुत्र श्रीकृष्ण (जो विष्णु के अवतार हैं) के चरण कमलों का अब तो भजन कर ले अर्थात् उनका चिंतन कर। श्रीकृष्ण के चरण कैसे हैं.. इन्हीं का वर्णन इस पद में है। उनके चरण कमल के समान व सुख प्रदान करने वाले व मन को हरने वाले हैं। उनके चरणों का ध्यान सनक, सनंदन, सनातन व सनत्कुमार तथा शिव किया करते हैं। जिनकी महिमा का वर्णन वेद-पुराणों में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त शेष, शारदा, ऋषि, नारद, संत-महात्मा भी उनके चरणों का ध्यान किया करते हैं। जिनके चरणों के पराग का प्रभाव दुर्लभ है और जो लक्ष्मी के हितकारी हैं, ऐसे विष्णु के चरण कमलों का हे मन! भजन कर। हे मन! तू प्रभु के चरणों का ध्यान कर। जिनके स्पर्श से गंगा पावन हो गई तथा जिन्होंने तीनों लोकों का घर बना दिया। अर्थात् संपन्न कर दिया। हे मन! सृष्टिगत जीवों के पापों का शमन करने वाले उन्हीं प्रभु के चरणों का तू ध्यान कर। उनके चरणों का ध्यान करके या भजन करके कितने ही पापी तर गए अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो गए। जिन प्रभु के चरणों की रज का स्पर्श पाकर गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का उद्धार हो गया तथा जिनके चरणों की महिमा को केवट ने उजागर किया और उन चरणों को धोकर अपने शीश पर धारण किया, उन्हीं श्रीकृष्ण के पवित्र चरणों के मकरंद (मधुर रस) का हे मन! तू पान कर। उससे बढकर अन्य कुछ भी नहीं है। सूरदास कहते हैं कि हे मेरे मूढ मन! तू भगवान् के उन चरणों का वंदन कर जिससे तेरे जन्म-मरण का कष्ट मिट जाए।<br />
बृथा सु जन्म गंवैहैं<br />
जा दिन मन पंछी उडि जैहैं।<br />
ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥<br />
या देही को गरब न करिये स्यार काग गिध खैहैं।<br />
तीन नाम तन विष्ठा कृमि ह्वै नातर खाक उडैहैं॥<br />
कहं वह नीर कहं वह सोभा कहं रंग रूप दिखैहैं।<br />
जिन लोगन सों नेह करतु है तेई देखि घिनैहैं॥<br />
घर के कहत सबारे काढो भूत होय घर खैहैं।<br />
जिन पुत्रनहिं बहुत प्रीति पारेउ देवी देव मनैहैं॥<br />
तेइ लै बांस दयौ खोपरी में सीस फाटि बिखरैहैं।<br />
जहूं मूढ करो सतसंगति संतन में कछु पैहैं॥<br />
नर वपु धारि नाहिं जन हरि को यम की मार सुखैहैं।<br />
सूरदास भगवंत भजन बिनु, बृथा सु जन्म गंवैहैं॥<br />
यह संसार नश्वर है। इस मिथ्यास्वरूप जगत् में ईश्वर ही एकमात्र आधार है। इस भवसागर से वही पार कर सकता है। इन्हीं भावनाओं को सूरदासजी ने राग झिंझौटी में आबद्ध इस पद के माध्यम से किया है। वह कहते हैं - हे मानव! जिस दिन मन (आत्मा) रूपी यह पंछी उडान भरेगा उस दिन देह रूपी इस वृक्ष के सभी पत्ते टूटकर बिखर जाएंगे अर्थात् यह शरीर प्राणहीन हो जाएगा। इसलिए इस पंचभौतिक शरीर का तू गर्व न कर। इस शरीर को सियार, गिद्ध व कौवे ही खाएंगे। प्राणहीन होने पर शरीर की तीन ही गतियां होंगी अर्थात् या तो वह विष्ठा रूप हो जाता है या कीडे पड जाते हैं या फिर भस्म बनकर उड जाता है। तब स्नान करना, सजना-संवरना, रंग-रूप सभी नष्ट हो जाएगा। हे मानव! मरने के पश्चात वही लोग तुझसे घृणा करने लगेंगे जिन्हें तू अपना मानकर प्यार किया करता था। ऐसी स्थिति होने पर घर के लोग तुझे घर से निकाल बाहर करेंगे। इस पर भी उनका कथन यह होगा कि कहीं भूत बनकर यह घर को न खा जाए। जिन पुत्रों की प्राप्ति के लिए हे मानव! तूने देवी-देवताओं को मनाया और जिन पुत्रों को तूने लाड-प्यार से पाला वही पुत्र तेरी खोपडी फोडेंगे अर्थात् कपाल क्रिया करेंगे। इसलिए हे मूढ मानव! तू संतों का संग कर। ऐसा करने से तुझे कुछ ज्ञान ही प्राप्त होगा। यदि तूने मनुष्य का चोला धारण करके भी हरि भजन नहीं किया तो मरणोपरांत यम के कोडे खाएगा। सूरदास कहते हैं कि ईश्वर के भजन बिना मनुष्य का यह तन रूपी धन पाना निरर्थक ही है।<br />
मेटि सकै नहिं कोइ<br />
करें गोपाल के सब होइ।<br />
जो अपनौ पुरषारथ मानै अति झूठौ है सोइ॥<br />
साधन मंत्र जंत्र उद्यम बल ये सब डारौं धोइ।<br />
जो कछु लिखि राख्यौ नंद नंदन मेटि सकै नहिं कोइ॥<br />
दुख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहि मरत हौ रोइ।<br />
सूरदास स्वामी करुनामय स्याम चरन मन पोइ॥<br />
सूरकृत विनयपत्रिका से उद्धृत यह पद राग घनाक्षरी पर आधारित है। मनुष्य लाख जतन करे लेकिन होता वही है जो भाग्य में लिखा होता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में कहा है कि गोपाल अर्थात् भगवान् जो चाहता है वही होता है। यदि मनुष्य यह गर्व करता है कि उसने श्रम किया था, पुरुषार्थ किया था तभी उसका कार्य सफल हुआ है तो उसका ऐसा गर्व करना मिथ्या है। प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य अथक परिश्रम करता है, तब भी उसे उसका पर्याप्त फल नहीं मिलता। क्योंकि उसके भाग्य में में ऐसा लिखा ही नहीं होता। तब फल कैसे मिल सकता है? कभी-कभी इसके विपरीत स्थिति होती है। मनुष्य कुछ भी परिश्रम नहीं करता तब भी उसका अल्प पुरुषार्थ ही सिद्ध हो जाता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में समझाया है। सूरदास कहते हैं कि जितने भी तंत्र-मंत्र आदि साधन हैं, वह सब निरर्थक हैं। वे तो मात्र मन को दिलासा देने के माध्यम मात्र हैं। उनसे कुछ भी होना-जाना नहीं है, अत: भूलकर भी उनका आश्रय मत लो। सत्य तो यह है कि जो कुछ भी भाग्य में विधाता ने लिख दिया है, उसी को भोगना है। उसके लिखे को कोई भी नहीं मिटा सकता। प्राय: देखा गया है कि सृष्टि में जीवादि हानि-लाभ, सुख-दुख को लेकर व्यर्थ का प्रलाप करते रहते हैं। जबकि वह यह नहीं समझते हैं कि भाग्य में ऐसा ही लिखा था। (रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने इस बात को स्पष्ट किया है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ अर्थात् हानि, लाभ, जीवन मरण, कीर्ति-अपकीर्ति यह सब विधाता के हाथ में है। तब भी मनुष्य इसके कारण स्वयं को दुखी किए रहता है। इस पद में भी सूरदास इन्हीं बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हानि, लाभ, सुख, दुख आदि को विधाता का लेख समझकर बिसरा दो। करुणा के सागर भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा।<br />
हम भगतनि के भगत हमारे<br />
हम भगतनि के भगत हमारे।<br />
सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे॥<br />
भगतनि काज लाज हिय धरि कै पाइ पियादे धाऊं।<br />
जहां जहां पीर परै भगतनि कौं तहां तहां जाइ छुडाऊं॥<br />
जो भगतनि सौं बैर करत है सो निज बैरी मेरौ।<br />
देखि बिचारि भगत हित कारन हौं हांकों रथ तेरौ॥<br />
जीते जीतौं भगत अपने के हारें हारि बिचारौ।<br />
सूरदास सुनि भगत विरोधी चक्र सूदरसन जारौं॥<br />
राग घनाक्षरी में आबद्ध इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने भक्ति की महिमा का बखान किया है। भक्तों के वश में भगवान् होते हैं। यह बात इस पद में बडे ही सहज ढंग से कही गई है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए भक्त की महिमा को प्रतिपादित कर रहे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! सुनो! मैं भक्तों का हूं और भक्त मेरे हैं अर्थात् मेरे और भक्तों के मध्य किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है जो टालने पर भी टल नहीं सकती। यदि मेरे भक्त का कोई कार्य बिगडने वाला होता है तो मैं नंगे पैरों दौडकर भी भक्त के उस कार्य को संवारता हूं। इसमें मुझे मेरी ही लाज का विचार रहता है। (यह सत्य भी है क्योंकि भक्त तो अपनी बला भगवान् पर टाल देता है। वह भगवान से आर्त स्वर में प्रार्थना करने लगता है। तब भगवान् को भक्त की पुकार सुननी ही पडती है।) श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे भक्त पर यदि किंचित भी दुख पडता है तो मैं उसे तुरंत ही दुख से मुक्त करता हूं। जो दुष्टजन मेरे भक्तों से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन! तू मेरा ही शत्रु समझ। अब तू मेरा भक्त है। अत: तेरी भक्ति के कारण ही मैं तेरा रथ हांक रहा हूं। श्रीकृष्ण बोले कि मेरे भक्त की यदि हार होती है तो उसमें मैं अपनी ही हार समझता हूं और मेरे भक्त की जीत होती है तो उसे मैं अपनी ही जीत समझता हूं। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे अर्जुन! जब मैं यह देखता हूं कि मेरे भक्त को उसका शत्रु परास्त करने ही वाला है, तब मैं इस सुदर्शन चक्र से उसे (भक्त के शत्रु को) नष्ट कर देता हूं।<br />
मैं तो चंद खिलौना लैहौं<br />
मैया मैं तो चंद खिलौना लैहौं।<br />
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं॥<br />
सुरभि कौ पय पान करिहौं बेनी सिर न गुहैहौं।<br />
ह्वै हौं पूत नंदबाबा कौ तेरौ सुत न कहैहौं॥<br />
आगैं आउ बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहौं।<br />
हंसि समुझावति कहति जसोमति नई दुलहिया दैहौं॥<br />
तेरी सौं मेरी सुनि मैया अबहिं बियाहन जैहौं।<br />
सूरदास ह्वै कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहौं॥<br />
राग केदार पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने बाल हठ का सजीव चित्रण किया है। बालकृष्ण अपनी लीलाओं के तहत यशोदा मैया से चाँद लाकर देने का हठ कर रहे हैं। एक बार श्रीकृष्ण ने आकाश मंडल में उदित चंद्रमा को देख लिया। चंद्रमा को देखने के बाद वह यशोदा से हठ कर बैठे कि मैया मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूंगा। यदि तुम मुझे यह खिलौना नहीं दोगी तो मैं तुम्हारी गोद में नहीं आऊंगा और यहीं धरती पर लोट जाऊंगा। इतना ही नहीं मैं गाय का दूध भी नहीं पिऊंगा और न ही चोटी गुंथवाऊंगा। मैं तुम्हारा पुत्र भी नहीं कहलाऊंगा बल्कि नंदबाबा का पुत्र कहलाऊंगा। जब कृष्ण ने हठ पकड लिया और नहीं माने तब माता यशोदा बोलीं कि अच्छा सुन, कन्हैया मैं तुझे एक बात बतलाती हूं, यह बात मैं बलराम को नहीं बतलाऊंगी। इतना कहकर यशोदा हंसते हुए श्रीकृष्ण से बोलीं कि सुन कन्हैया! मैं तुझे नई दुल्हन ला दूंगी। यशोदा ने जब ऐसा कहा तो कन्हैया चंद्रमा लेने का हठ छोडकर दुल्हन लेने का हठ करने लगे और बोले, मैया तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं दुल्हन को ब्याहने के लिए अभी जाऊंगा। सूरदास यहां अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि श्रीकृष्ण का ब्याह होगा तो मैं कुटिल भी बाराती बनकर जाऊंगा और मंगल गीत गाऊंगा।<br />
जागिए ब्रजराज कुंवर<br />
जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।<br />
कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥<br />
तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।<br />
रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥<br />
विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी।<br />
सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥<br />
राग विभास पर आधारित इस पद में सूरदासजी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे हैं। माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती हैं कि हे ब्रज के राजकुमार! अब जाग जाओ। कमल पुष्प खिल गए हैं तथा कुमुद भी बंद हो गए हैं। (कुमुद रात्रि में ही खिलते हैं, क्योंकि इनका संबंध चंद्रमा से है) भ्रमर कमल-पुष्पों पर मंडाराने लगे हैं। सवेरा होने के प्रतीक मुर्गे बांग देने लगे हैं और पक्षियों व चिडियों का कलरव प्रारंभ हो गया है। सिंह की दहाड सुनाई देने लगी है। गोशाला में गउएं बछडों के लिए रंभा रही हैं अर्थात् दूध दुहने का समय हो गया है। चंद्रमा छुप गया है तथा सूर्य निकल आया है। नर-नारियां प्रात:कालीन गीत गा रहे हैं। अत: हे श्यामसुंदर! अब तुम उठ जाओ। सूरदास कहते हैं कि यशोदा बडी मनुहार करके श्रीगोपाल को जगा रही हैं, जो मंगल करने वाले हैं।<br />
हरि तनु देखि लजानी<br />
उपमा हरि तनु देखि लजानी।<br />
कोउ जल मैं कोउ बननि रहीं दुरि कोउ कोउ गगन समानी॥<br />
मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं तडित दसन-छबि हेरि।<br />
मीन कमल कर चरन नयन डर जल मैं कियौ बसेरि॥<br />
भुजा देखि अहिराज लजाने बिबरनि पैठे धाइ।<br />
कटि निरखत केहरि डर मान्यौ बन-बन रहे दुराइ॥<br />
गारी देहिं कबिनि कैं बरनत श्रीअंग पटतर देत।<br />
सूरदास हमकौं सरमावत नाउं हमारौ लेत॥<br />
भक्त शिरोमणि सूरदासजी अपने इस पद में भगवान् की अतुलनीय शोभा का वर्णन कर रहे हैं। यह पद राग गौरी में निबद्ध है। श्रीकृष्ण की शोभा को देखकर सारी उपमाएं लुप्त हो गई। कोई उपमा जल में जा छिपी तो कोई वन में दुबक गई और कोई-कोई उपमा तो नभमंडल में समा गई। श्रीकृष्ण का मुख देखकर स्वयं को लज्जित जानता हुआ चंद्रमा आकाश में चला गया। इसी प्रकार उनके दांतों की शोभा के आगे स्वयं को लज्जित पाकर बिजली भी आकाश में लुप्त हो गई। मछली, कमल पुष्प ने श्रीकृष्ण के हाथों, पैरों व नेत्रों से भय खाकर जल में ही बसेरा कर लिया। उनकी भुजाओं को देखकर सर्पराज भी लज्जित होकर बिल में जा छिपा। श्रीकृष्ण के कटि भाग की शोभा इतनी मनोहर थी कि उसके आगे स्वयं को लज्जित समझकर सिंह भी वन में चला गया। सूरदास कहते हैं कि जितनी भी उपमाएं हैं वह सब कवियों को गाली देती हैं कि कविगण श्रीप्रभु के अंगों की तुलना उससे देते हैं। इस तरह उनके अंगों के समक्ष हमें लज्जित करते हैं। इसी से मिलता-जुलता पद महाकवि विद्यापति का भी है। <br />
माधव कत तोर करब बडाई। <br />
उपमा करब तोहर ककरा सों कहितहुँ अधिक लजाई॥ <br />
अर्थात् भगवान् की तुलना किसी से संभव नहीं है।<br />
पायो परम पदु गात<br />
सबै दिन एक से नहिं जात।<br />
सुमिरन भजन लेहु करि हरि को जों लगि तन कुसलात॥<br />
कबहूं कमला चपल पाइ कै टेढेइ टेढे जात।<br />
कबहुंक आइ परत दिन ऐसे भोजन को बिललात॥<br />
बालापन खेलत ही गंवायो तरुना पे अरसात।<br />
सूरदास स्वामी के सेवत पायो परम पदु गात॥<br />
यह राग घनाक्षरी का पद है। सभी दिन एक से नहीं होते, इसलिए जब तक शरीर में प्राण हैं, भगवान् का सुमिरन और भजन कर लेना चाहिए। लक्ष्मी चंचला होती है, किसी के यहां टिकती नहीं, फिर भी धन प्राप्त हो जाने पर मनुष्य अहंकारी हो जाता है। किंतु कभी ऐसे दिन आ पडते हैं कि मनुष्य भोजन के लिए भी भटकता फिरता है। बाल्यवस्था तो खेल-खेल में ही बीत जाती है। युवावस्था में विषय-वासनाओं में पडकर मनुष्य आलस्य में पडता है और भगवान् का भजन नहीं करता। सूरदास जी कहते हैं कि श्रीहरि की सेवा करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।<br />
कहां लौं बरनौं सुंदरताई<br />
कहां लौं बरनौं सुंदरताई।<br />
खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥<br />
कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई।<br />
मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुष चढाई॥<br />
अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई।<br />
मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥<br />
नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई।<br />
सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥<br />
दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई।<br />
किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥<br />
खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई।<br />
घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥<br />
राग घनाक्षरी में निबद्ध इस पद में सूरदासजी भगवान् की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मैं बाल कृष्ण की सुंदरता का कहां तक वर्णन करूं। कुंवर कन्हैया स्वर्ण के आंगन में खेल रहे हैं, यह शोभा देखकर नेत्रों को सुख मिलता है। कन्हैया के सिर पर रखी हुई टोपी (कुलही) अनेक सुंदर रंगों में इस प्रकार शोभायमान है, मानो नए बादल पर इंद्रधनुष चढा हो। बालक कृष्ण के मुख पर बिखरे हुए टेढे बाल अत्यंत सुंदर लग रहे हैं और मन को हर लेते हैं। ये ऐसे लगते हैं, मानो सुंदर कमल के ऊपर भौरों की पंक्ति घूम रही हो। उनके मस्तक पर नीला, सफेद, पीला और लाल मणि से जडा हुआ लटकन ऐसा सुंदर लगता है, मानो शनि, बृहस्पति, शुक्र, और मंगल साथ-साथ हों (शिन का प्रतीक नीलम, बृहस्पति का पीला पुखराज, शुक्र का सफेद हीरा और मंगल का लाल मूंगा होता है।) उनके दूध के दांतों की चमक की शोभा एक विचित्र उपमा पाती है। बालक कृष्ण के किलकारी मारते और हंसते समय कभी दांत दिखाई पडते हैं और कभी छिप जाते हैँ। ये इस प्रकार लगते हैं जैसे बादलों में बिजली की छटा हो। उनकी रुक-रुककर निकलने वाली खंडित तोतली बोली अनंत सुख देती है। इस प्रकार घुटनों के बल चलते हुए और शरीर में मिट्टी लपेटे हुए सुशोभित बाल श्रीकृष्ण पर सूरदास जी बलिहारी जाते हैं।<br />
बदन मनोहर गात<br />
सखी री कौन तुम्हारे जात।<br />
राजिव नैन धनुष कर लीन्हे बदन मनोहर गात॥<br />
लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं अंग अंग मुसकात।<br />
अति मृदु चरन पंथ बन बिहरत सुनियत अद्भुत बात॥<br />
सुंदर तन सुकुमार दोउ जन सूर किरिन कुम्हलात।<br />
देखि मनोहर तीनौं मूरति त्रिबिध ताप तन जात॥<br />
राग रामकली पर आधारित इस पद में भक्तकवि सूरदास जी भगवान् राम की छवि का वर्णन कर रहे हैं। राम-लक्ष्मण, सीता जब वन से होकर जा रहे थे तब एक गांव में रुके। उस गांव की स्त्रियों ने सीताजी से पूछा कि सखी! इन दोनों सुंदर कुंवरों में तुम्हारे स्वामी कौन से हैं? तब सीताजी ने संकेत से बताया कि जिनके नेत्र कमलवत हैं तथा जिनका शरीर मनोहर है और धनुष धारण किए हैं, वही मेरे स्वामी हैं। फिर ग्रामीण नारियां आपस में बातें करने लगीं कि यह कैसी विचित्र बात है कि इतने सुंदर, सुकुमार कोमल चरणों से वन में विचरण कर रहे हैं। सूर्य की किरणों से सुंदर शरीर वाले यह सुकुमार कुम्हला जाएंगे। सूरदास कहते हैं कि राम, लक्ष्मण, सीता की मनोहर जोडी को देखकर ग्रामीण नारियों के त्रिविध ताप मिट गए।<br />
औगुन चित न धरौ<br />
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ।<br />
समदरसी है नाम तुहारौ, सोई पार करौ॥<br />
इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परौ।<br />
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ॥<br />
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ।<br />
जब मिलि गए तब एक-वरन ह्वै, सुरसरि नाम परौ॥<br />
तन माया, ज्यौ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ।<br />
कै इनकौ निरधार कीजियै कै प्रन जात टरौ॥<br />
भक्त और भगवान् के बीच कितना मधुर संबंध दर्शाया है राग घनाक्षरी पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने। यह सर्वविदित है कि पूर्णता केवल ईश्वर को प्राप्त है। अपूर्णता के कारण मनुष्य से त्रुटि स्वाभाविक है। इसलिये सूरदास ने भगवान् से अवगुण समाप्त करने नहीं बल्कि इसे हृदय में न धरने की प्रार्थना की है। सूरदासजी कहते हैं - मेरे स्वामी! मेरे दुर्गुणों पर ध्यान मत दीजिये! आपका नाम समदर्शी है, उस नाम के कारण ही मेरा उद्धार कीजिये। एक लोहा पूजा में रखा जाता है (तलवार की पूजा होती है) और एक लोहा (छुरी) कसाई के घर पडा रहता है, किंतु (समदर्शी) पारस इस भेद को नहीं जानता, वह तो दोनों को ही अपना स्पर्श होने पर सच्चा सोना बना देता है। एक नदी कहलाती है और एक नाला, जिसमें गंदा पानी भरा है, किंतु जब दोनों गङ्गाजी में मिल जाते हैं, तब उनका एक-सा रूप होकर गङ्गा नाम पड जाता है। इसी प्रकार सूरदासजी कहते हैं- यह शरीर माया (माया का कार्य) और जीव ब्रह्म (ब्रह्म का अंश) कहा जाता है, किंतु माया के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण वह (ब्रह्मरूप जीव) बिगड गया (अपने स्वरूप से च्युत हो गया।) अब या तो आप इनको पृथक् कर दीजिये (जीव की अहंता-ममता मिटाकर उसे मुक्त कर दीजिये), नहीं तो आपकी (पतितों का उद्धार करने की) प्रतिज्ञा टली (मिटी) जाती है। <br />
नोट :- इस पद की अंतिम दो पंक्तियां कहीं-कहीं इस तरह भी लिखी हैं- <br />
इक जीव इक ब्रह्म कहावत सूरश्याम झगरौ। <br />
अबकी बेर मोहि पार कीजै, कै प्रण जात टरौ॥<br />
राखौ लाज मुरारी<br />
अब मेरी राखौ लाज, मुरारी।<br />
संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥<br />
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी।<br />
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी॥<br />
नाचन-कूदन मृगिनी लागी, चरन-कमल पर वारी।<br />
सूर स्याम प्रभु अबिगतलीला, आपुहि आपु सँवारी॥<br />
जीव हर समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भरोसे सूरदासजी ने भगवान् से संकट दूर करने की विनती की है। वह कहते हैं - हे मुरारी! अब मेरी लाज रख लीजिये। एक संकट तो था ही कि जीव संसार-चक्र में पडा था उसमें एक और संकट उत्पन्न हो गया। बुद्धि भी भ्रम में पड गयी। मृग (परमपद को ढूँढनेवाले जिज्ञासु) से उसकी स्त्री मृगी (बुद्धि) कहती है कि मैं और कुछ नहीं जानती, अत: आपकी शरण में आयी हूँ। (बुद्धि ने इस प्रकार जब जीव का ही आश्रय ले लिया,) तब पवन (प्राण) उलटे चलने लगे (चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख हो गयी) इससे खेत जल गये (जन्म-जन्म के कर्म-संस्कार भस्म हो गये)। खेत का रखवाला कुत्ता (काम) सिर झाडकर चला गया (कामनाएँ नष्ट हो गयीं)। मृगी (बुद्धि) नाचने-कूदने लगी (आनन्दमग्न हो गयी) और चरणकमलों पर न्योछावर हो गयी (भगवान् के चरणों में लग गयी)। सूरदासजी कहते हैं -मेरे स्वामी श्यामसुन्दर की लीला जानी नहीं जाती। अपने-आप ही उन्होंने सेवक की गति सुधार दी (उसे अपना लिया)। यह पद राग मुलतानी-तिताला में बद्ध है।<br />
रतन-सौं जनम गँवायौ<br />
हरि बिनु कोऊ काम न आयौ।<br />
इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥<br />
कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ।<br />
तामैं तैं ततछन ही काढयौ, पल भर रहन न पायौ॥<br />
हौं तब संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ।<br />
चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ॥<br />
बोलि-बेलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ।<br />
पर्यौ जु काज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुडायौ॥<br />
आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड लडायौ।<br />
तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ॥<br />
पतित-उधारन, गनिका-तारन, सौ मैं सठ बिसरायौ।<br />
लियौ न नाम कबहुँ धोखैं हूँ, सूरदास पछितायौ॥<br />
इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हरि भजन करना है। हरि सुमिरन के बिना बीते पल को याद कर वृद्धावस्था में मनुष्य किस तरह व्यथित होता है उसका सांगोपांग चित्रण सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से किया है। वह इस मिथ्यास्वरूप जगत् में एकमात्र भगवान् को ही अपना आधार मानते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रपञ्चो">प्रपञ्चो<!--न्-->ं (संसार की मोह-ममता) में लगकर मैंने रत्न के समान मनुष्य जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बडे परिश्रम से सजाकर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से शरीर तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी सती हो जाऊँगी इस प्रकार कह-कहकर झूठी <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रवञ्चना">प्रवञ्चना<!--न्--> करके पत्नी ने मेरा धन खाया, मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुलाकर (उनकी सहायता करके) मैंने बडा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; किंतु अन्त समय में जब काम पडा, तब उन्होंने भी मुझे आकर (मृत्यु से) छुडाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोडों प्रकार से लाड लडाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटिसूत्र) भी तोड लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करनेवाले हैं; गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझ शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। यह पद राग-गूजरी में पर आधारित है।<br />
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल<br />
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।<br />
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥<br />
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।<br />
भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत असंगत चाल॥<br />
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।<br />
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥<br />
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।<br />
सूरदास की सबै अबिद्या दूरि करौ नँदलाल॥<br />
राग-घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदासजी ने माया-तृष्णा में लिपटे मनुष्य की व्यथा का सजीव चित्रण किया है। वह कहते हैं- हे गोपाल! अब मैं बहुत नाच चुका। काम और क्रोध का जामा पहनकर, विषय (चिन्तन) की माला गले में डालकर, महामोहरूपी नूपुर बजाता हुआ, जिनसे निन्दा का रसमय शब्द निकलता है (महामोहग्रस्त होने से निन्दा करने में ही सुख मिलता रहा), नाचता रहा। भ्रम (अज्ञान) से भ्रमित मन ही पखावज (मृदंग) बना। कुसङ्गरूपी चाल मैं चलता हूँ। अनेक प्रकार के ताल देती हुई तृष्णा हृदय के भीतर नाद (शब्द) कर रही है। कमर में माया का फेटा (कमरपट्टा) बाँध रखा है और ललाट पर लोभ का तिलक लगा लिया है। जल और स्थल में (विविध) स्वाँग धारणकर (अनेकों प्रकार से जन्म लेकर) कितने समय से यह तो मुझे स्मरण नहीं (अनादि काल से)- करोडों कलाएँ मैंने भली प्रकार दिखलायी हैं (अनेक प्रकार के कर्म करता रहा हूँ)। हे नन्दलाल! अब तो सूरदास की सभी अविद्या (सारा अज्ञान) दूर कर दो। माया के वशीभूत मनुष्य की स्थिति का इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने सांगोपांग चित्रण किया है। सांसारिक प्रपंचों में पडकर लक्ष्य से भटके जीवों का एकमात्र सहारा ईश्वर ही है।<br />
जनम अकारथ खोइसि<br />
रे मन, जनम अकारथ खोइसि।<br />
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि॥<br />
निसि-दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि।<br />
गोड पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कहा होइसि॥<br />
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि-देखि मुख रोइसि।<br />
सूर स्याम बिनु कौन छुडाये, चले जाव भई पोइसि॥<br />
माया-मोह के वश में पडकर जीवन को व्यर्थ गँवाने के कारण अंत में जो पश्चाताप होता है, उसी का सजीव विवरण इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने किया है। वह कहते हैं - अरे मन! तूने जीवन व्यर्थ खो दिया। श्रीहरि की भक्ति तो कभी की ही नहीं, बस, पेट भरा और पडकर सो रहा (भोजन और निद्रा में ही समय नष्ट किया)। रात-दिन मुँह बाये घूमता रहता हूँ, अहंकार में पडे रहकर ही जीवन नष्ट कर दिया। अब तो दोनों पैर फैलाकर भली प्रकार गिर गया है (पूरा ही पतन हो गया है)। अब बता, (परलोक में) कैसी (दारुण) गति होगी? काल और यमराज से आकर पाला पडा है, लोगों का मुख देख-देखकर अब रोता है। सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के भजन बिना (काल और यमदूतों से) छुडा कौन सकता है? अब दौड-धूप हो चुकी, लडखडाते हुए चले जाओ। यह पद राग सोरठा में है।<br />
मूरख जनम गँवायौ<br />
रे मन मूरख, जनम गँवायौ।<br />
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥<br />
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।<br />
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि, हाथ कछू नहिं आयौ॥<br />
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।<br />
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥<br />
विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण राग-धनाश्री में बद्ध इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं - अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा। अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदासजी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है। <br />
अजहूँ चेति अचेत<br />
सबै दिन गए विषय के हेत।<br />
तीनौं पन ऐसैं हीं खोए, केश भए सिर सेत॥<br />
आँखिनि अंध, स्त्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत।<br />
गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि-तजि पूजत प्रेत॥<br />
मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत।<br />
ऐसौ प्रभू छाँडि क्यौं भटकै, अजहूँ चेति अचेत॥<br />
राम नाम बिनु क्यौं छूटौगे, चंद गहैं ज्यौं केत।<br />
सूरदास कछु खरच न लागत, राम नाम मुख लेत॥<br />
राग धनाक्षरी में आबद्ध यह पद सूर विनय पत्रिका से उद्धृत है। भवसागर से पार उतारने में तो रामनाम रूपी नौका ही एकमात्र सहारा है। उस पतित पावन नाम को ही विषय रस में डूब जाने से भुला दिया जाता है। सभी दिन (पूरी आयु) विषयों के लिये (विषय-सेवन में) ही बीत गये। तीनों (बाल्य, किशोर, तारुण्य) अवस्थाएँ ऐसे ही व्यतीत कर दीं और अब बाल सफेद हो गये बुढापा आ गया। आँखों से अंधा हो गया, कानों से सुनायी नहीं पडता, पैरों सहित सभी अङ्ग शिथिल हो गये (कर्मेन्द्रियों की शक्ति भी जाती रही)। गङ्गाजल छोडकर कुएँ का पानी पीता है और श्रीहरि को छोडकर प्रेत (शरीर) की पूजा करता है। (इसके बदले) यदि मन, वाणी तथा कर्म से श्रीश्यामसुन्दर का भजन करे तो वे (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) चारों पदार्थ देते हैं। अरे मूर्ख! ऐसे प्रभु को छोडकर (माया में) क्यों भटक रहा है? अब भी सावधान हो जा! राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान रामनाम लिये बिना (संसार से) तू कैसे छूट सकता है? (यह पुराणों की कथा है कि भगवान् के चक्र के द्वारा डराये जाने पर ही राहु चन्द्रमा या सूर्य को छोडता है।) सूरदासजी कहते हैं कि मुख से रामनाम लेने में कुछ खर्च तो लगता नहीं, फिर भी क्यों नाम नहीं लेता?<br />
आनि सँजोग परै<br />
भावी काहू सौं न टरै।<br />
कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥<br />
मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै।<br />
तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥<br />
रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै।<br />
मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥<br />
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै।<br />
द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै॥<br />
हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै।<br />
जो गृह छाँडि देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥<br />
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै।<br />
सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥<br />
भावी बलवान है अर्थात् विधि का लिखा अमिट है। इसी तथ्य को राग सारंग के माध्यम से सूरदास ने इस पद में दर्शाया है। वह कहते हैं - होनहार (प्रारब्ध) किसी से भी टलती नहीं। कहाँ वह राहु और कहाँ वे सूर्य-चंद्र (बहुत दूरी है इनमें)। किंतु इनका संयोग भी (ग्रहण के समय) आ पडता है। वसिष्ठ मुनि विद्वान् तथा ज्ञानी थे और उन्होंने बहुत श्रम से, सँभालकर भगवान् राम के राज्याभिषेक मुहूर्त निश्चित किया; किंतु (परिणाम यह हुआ कि) श्रीराम के पिता महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, सीताजी का हरण हुआ, श्रीराम को वनवासी वेष धारणकर वनवास का कष्ट झेलना पडा। रावण ने तैंतीसों करोड देवताओं को जीत लिया था और त्रिभुवन पर राज्य कर रहा था, मृत्यु को भी बाँधकर उसने कुएँ में बंद कर रखा था, किंतु प्रारब्धवश वह भी मारा गया। अर्जुन के तो (स्वयं) श्रीहरि ही सारथी थे, पर उन्हें भी वन में निकलना (वनवास भेागना) पडा। राजसभा में द्रौपदी का वस्त्र दु:शासन ने खींचा (यद्यपि द्रौपदी श्रीकृष्ण की परम भक्ता थी)! संसार में हरिश्चन्द्र के समान कौन दानी होगा, पर उन्हें नीच के घर (चाण्डाल के यहाँ) सेवा करनी पडी। यदि कोई घर छोडकर बहुत-से देशों में दौडता (घूमता) फिरे, तो भी उसका प्रारब्ध उसके साथ ही घूमता है। तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और जितने भी देहधारी हैं, सभी होनहार (प्रारब्ध) के वश में हैं। अत: सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु ने जो विधान किया है; वही होगा, (तब) चिन्ता करके कौन मरता रहे।<br />
दियौ अभय पद ठाऊँ<br />
तुम तजि और कौन पै जाउँ।<br />
काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥<br />
ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।<br />
अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥<br />
रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।<br />
कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥<br />
भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।<br />
कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥<br />
भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है। सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद राग मलार में निबद्ध है। वह कहते हैं - आपको छोडकर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।<br />
मन धन-धाम धरे<br />
मोसौं पतित न और हरे।<br />
जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥<br />
ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।<br />
बिषई भजे, बिरक्त न सेए, मन धन-धाम धरे॥<br />
ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।<br />
त्यौं मन मूढ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥<br />
ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।<br />
सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥<br />
राग धनाश्री में रचित यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है। महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोडकर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!<br />
मो सम कौन कुटिल खल कामी<br />
मो सम कौन कुटिल खल कामी।<br />
तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सब के अन्तरजामी॥<br />
जो तन दियौ, ताहि बिसरायौ, ऐसौ, नोन-हरामी।<br />
भरि भरि उदर बिषै कौं धावत, जैसैं सूकर ग्रामी॥<br />
सुनि सतसंग होत जिय आलस, बिषयिनि सँग बिसरामी।<br />
श्रीहरि-चरन छाँडि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी॥<br />
पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितनि में नामी।<br />
सूरदास प्रभु अधम-उधारन सुनियै श्रीपति स्वामी॥<br />
राग जगला-तिताला में आबद्ध इस पद में पतित पावन भगवान् से सूरदासजी कहते हैं कि मेरे समान कुटिल, दुष्ट और कामी कौन है? हे करुणामय! आपसे क्या छिपा है, आप तो अन्तर्यामी (हृदय की बात जाननेवाले) हैं। मैं ऐसा नमकहराम (कृतघ्न) हूँ कि जिस प्रभु ने शरीर दिया, उसको मैंने भुला दिया। गाँव के सूअर की भाँति बार-बार पेट भरकर विषय-भोग के लिये दौडता हूँ। सत्सङ्ग सुनकर वहाँ जाने में आलस्य होता है अथवा सत्सङ्ग में बैठने पर आलस्य, निद्रा आती है और विषयी (संसारासक्त ) लोगों के साथ विश्राम (सुख) मानता हूँ। श्रीहरि के चरणों की सेव </span></b></div>जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-38562844002947319162010-04-27T10:12:00.001-07:002010-04-27T10:12:49.279-07:00संत गोस्वामी तुलसीदासजी के पद<div style="color: red;"><b><span>तू दयालु दीन हौं<br />
तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।<br />
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी॥<br />
नाथ तू अनाथ को, अनाथ कौन मोसो।<br />
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो॥<br />
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।<br />
तात-मात, गुरु-सखा, तू सब विधि हितु मेरो॥<br />
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।<br />
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै॥<br />
तुलसीकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद भगवत् भक्ति की सर्वोच्चता को दर्शाता है। भगवान् श्रीराम के अनन्य भक्त तुलसीदास भगवान् की भक्तवत्सलता व दयालुता का दर्शन करा रहे हैं। भगवान् से बडा दयालु और दानी कौन हो सकता है। प्रभु पापों का हरण करनेवाले हैं। इस पद के माध्यम से तुलसीदास भगवान् व भक्त के बीच संबंध की व्याख्या कर रहे हैं।<br />
तजि चरन तुम्हारे<br />
जाऊँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।<br />
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे॥<br />
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम अधारे।<br />
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड, जवन कवन सुर तारे॥<br />
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस विचारे।<br />
तिनके हाथ दास तुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे॥<br />
तुलसीदास का यह पद विनय पत्रिका से उद्धृत है।<br />
उदार जग माहीं<br />
ऐसो को उदार जग माहीं।<br />
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं॥<br />
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी।<br />
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥<br />
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं।<br />
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं॥<br />
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।<br />
तौ भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो॥<br />
तुलसीदास की विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद भगवान् की उदारता का बखान करता है। भगवान् श्रीराम बिना सेवा के दीनों पर द्रवित हो जाते हैं। जो ज्ञानियों व मुनियों के लिये भी दुर्लभ है वह गति उन्होंने सबरी को दी।<br />
जाके प्रिय न राम बैदेही<br />
जाके प्रिय न राम-बैदेही।<br />
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥<br />
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषण बंधु, भरत महतारी।<br />
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥<br />
नाते नेह राम के मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।<br />
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥<br />
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।<br />
जासो होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥<br />
तुलसीदास जी भगवान् श्रीराम के परम भक्त थे। विनय पत्रिका से उद्धृत इस पद में वह कहते हैं कि जिसको सीताराम से प्रेम नहीं है वह यदि परम प्रिय भी है तो उसे एकदम छोड देना चाहिये। तुलसीदास जी ने इसके अनेक उदाहरण दिये हैं। प्रह्लाद, विभीषण, भरत, बलि, ब्रज की वनिता आदि ने अपने प्रियजनों का त्याग कर दिया।<br />
रघुबर तुमको मेरी लाज<br />
रघुबर तुमको मेरी लाज।<br />
सदा सदा मैं सरन तिहारी तुमहि गरीबनिवाज॥<br />
पतित उधारन बिरद तुम्हारो, स्त्रवनन सुनी अवाज।<br />
हौं तो पतित पुरातन कहिये, पार उतारो जहाज॥<br />
अघ-खंडन दुख-भंजन जनके यही तिहारो काज।<br />
तुलसिदास पर किरपा कीजै, भगति-दान देहु आज॥<br />
यह पद तुलसीदास जी के भजन संग्रह से लिया गया है। इसमें तुलसीदास ने भगवान् से भक्ति देने की माँग की है।<br />
रामचरण सुखदाई<br />
भज मन रामचरन सुखदाई।<br />
जिहि चरनन से निकसी सुरसरि संकर जटा समाई।<br />
जटासंकरी नाम परयो है, त्रिभुवन तारन आई॥<br />
जिन चरनन की चरनपादुका भरत रह्यो लव लाई।<br />
सोइ चरन केवट धोइ लीने तब हरि नाव चलाई।<br />
सोइ चरन संतन जन सेवत सदा रहत सुखदाई।<br />
सोई चरन गौतम ऋषि-नारी परसि परमपद पाई॥<br />
दंडकबन प्रभु पावन कीन्हो ऋषियन त्रास मिटाई।<br />
सोई प्रभु त्रिलोक के स्वामी कनक मृगा सँग धाई॥<br />
कपि सुग्रीव बंधु भय-ब्याकुल तिन जय छत्र फिराई।<br />
रिपु को अनुज बिभीषन निसिचर परसत लंका पाई॥<br />
सिव सनकादिक अरु ब्रह्मादिक सेष सहस मुख गाई।<br />
तुलसिदास मारुत-सुत की प्रभु निज मुख करत बडाई॥<br />
तुलसीकृत भजन संग्रह से उद्धृत है यह पद। सभी कष्टों का निवारण प्रभु की शरणागति से हो जाता है। तुलसीदास जी का यह परम लोकप्रिय पद उनके भजन संग्रह से उद्धृत है। भगवान् राम का चरण सुखदायी है। इसी चरण से गंगा निकलकर भगवान् शंकर की जटा में समाई थी। भगवत् चरण की महत्ता का इतना सुंदर वर्णन तुलसीदास से ही संभव है। राम बाम दिसि जानकी लखन दाहिनी ओर।<br />
ध्यान सकल कल्यानमय सुरतरु तुलसी तोर॥<br />
भगवान् श्रीरामजी की बायीं और श्रीजानकीजी हैं और दाहिनी ओर श्रीलक्ष्मणजी हैं-यह ध्यान सम्पूर्णरूप से कल्याणमय है। तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरे लिये तो यह मनमाना फल देनेवाला कल्पवृक्ष ही है। <br />
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।<br />
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर प्रकाश (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहता है तो मुखरूपी दरवाजे की देहली (जीभ) पर रामनामरूपी मणिदीप (नित्य प्रकाशमय) रख दो अर्थात् जीभ द्वारा अखण्डरूप से श्रीराम-नाम का जप करते रहो। <br />
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।<br />
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥<br />
इस पद में तुलसीदास जी के अद्भुत भक्ति भाव का दर्शन होता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी के नाम (राम) के दोनों अक्षरों में एक र तो (रेफ के रूप में) सब वर्णो के मस्तक पर छत्र की भाँति विराजता है और दूसरा म (अनुस्वार के रूप में) सबके ऊपर मुकुट-मणि के समान सुशोभित होता है।<br />
नाम राम को अंक है सब साधन हैं सून।<br />
अंक गएँ कछु हाथ नहिं अंक रहें दस गून॥<br />
श्रीरामजी का नाम अङ्क है और सब साधन शून्य (0) हैं। अङ्क न रहने पर तो कुछ भी हाथ नहीं लगता, परन्तु शून्य के पहले अङ्क आने पर वे दसगुने हो जाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि रामनाम के जप के साथ जो साधन होते हैं, वे दसगुने लाभदायक हो जाते हैं, परन्तु रामनाम से हीन जो साधन होता है वह कुछ भी फल नहीं देता। <br />
राम नाम नर केसरी कनककसिपु कलिकाल।<br />
जापक जन प्रहलाद पालिहि दलि सुरसाल॥<br />
श्रीरामनाम नृसिंह भगवान् हैं, कलियुग हिरण्यकशिपु और श्रीरामनाम का जप करनेवाले भक्तजन प्रह्लाद के समान हैं। यह रामनामरूपी नृसिंह भगवान् देवताओं को दु:ख देनेवाले हिरण्यकशिपु को (भक्ति के बाधक कलियुग को) मारकर रक्षा करेगा।<br />
राम भरोसो राम बल राम नाम बिस्वास।<br />
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास॥<br />
तुलसीदासजी यही माँगते हैं कि मेरा एकमात्र राम पर ही भरोसा रहे, राम ही का बल रहे और जिसके स्मरणमात्र से ही शुभ मङ्गल और कुशल की प्राप्ति होती है, उस रामनाम में ही विश्वास रहे।<br />
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर।<br />
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव मीर॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं-हे रघुवीर! मेरे समान तो कोई दीन नहीं है और आपके समान कोई दीनबन्धु नहीं है। ऐसा विचार कर हे रघुवंशमणि! जन्म-मरण के महान् भय का नाश कीजिये।<br />
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।<br />
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि सब लोग मुझे श्रीरामजी का दास कहते हैं और मैं भी बिना लज्जा-संकोच के कहलाता भी हूँ (कहनेवालों का विरोध नहीं करता)। कृपालु श्रीरामजी इस उपहास को सहते हैं कि श्रीजानकीनाथजी-सरीखे स्वामी का तुलसीदास-सा सेवक है।<br />
एक भरोसो एक बल एक आस विश्वास।<br />
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास॥<br />
एक ही भरोसा है, एक ही बल है, एक ही आशा है और एक ही विश्वास है। एक रामरूपी श्यामघन (मेघ) के लिये ही तुलसीदास चातक बना हुआ है।<br />
तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबहीं तें होइ।<br />
लहै बडाई देवता इष्टदेव जब होइ॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि जप, तप, नेम तथा व्रत आदि सब साधन सभी से बन सकते है, परन्तु मनुष्य बडाई तब पाता है, जब वह देवता (भगवान्) को अपना [एकमात्र] इष्टदेव-प्रेम का देवता बना लेता है।<br />
नीच निचाइ नहि तजइ सज्जनहू के संग।<br />
तुलसी चंदन बिटप बसि बिनु बिष भए न भुअंग॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि सज्जन का सङ्ग होने पर भी नीच मनुष्य अपनी नीचता को नहीं छोडता। चन्दन के वृक्षों में निवास करके भी साँप विषरहित नहीं हुए।<br />
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।<br />
सुधा सराहिअ समरताँ गरल सराहिअ मीचु॥<br />
भला आदमी अपनी भलाई से और नीच अपनी नीचता से ही शोभा पाता है। अमृत की प्रशंसा इसलिये की जाती है कि वह अमरत्व प्रदान करता है, और विष वही सराहनीय है जिससे शीघ्र और सहज ही मृत्यु हो जाय।<br />
सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।<br />
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥<br />
जो शरणागत की रक्षा करने में अपना अहित सोचकर उसका त्याग कर देते हैं, वे मनुष्य पामर (क्षुद्र) और पापमय हैं और उनका मुख देखने से भी हानि होती है। तुलसीदास जी ने इस पद के माध्यम से भगवान् की शरणागतवत्सलता का उदाहरण दिया है। रावण द्वारा अपमानित किये जाने पर विभीषण भगवान् श्रीराम की शरण में सिंधु तट पर आता है। सुग्रीव एवं कई अन्य वानर योद्धा भगवान् को यह सलाह देते हैं कि प्रभु! विभीषण रावण का भाई है, उसको शरण देना ठीक नहीं होगा। लेकिन शरणागत वत्सल भगवान् श्रीराम ने कहा कि शरण में आनेवालों को मैं किसी भी स्थिति में छोड नहीं सकता।<br />
मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।<br />
लहेऊ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥<br />
जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वभाव से ही सिर चढाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने जन्म लेने का लाभ पाया है, नहीं तो जगत् में जन्म लेना व्यर्थ ही है।<br />
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस।<br />
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥<br />
यदि मन्त्री, वैद्य और गुरु अप्रसन्नता के भय से या स्वार्थसाधन की आशा से हित की बात न कहकर हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं तो राज्य, धर्म और शरीर-इन तीनों का शीघ्र ही नाश हो जाता है।<br />
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक।<br />
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सहित बिबेक॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रधान (राजा) को मुख के समान होना चाहिये, जो खाने-पीने के लिये तो एक ही है; परंतु विवेक के साथ समस्त अङ्गों का पालन-पोषण करता है।<br />
फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।<br />
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं यद्यपि बादल अमृत-सा जल बरसाते हैं तो भी बेंत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार यदि ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिल जायँ तो भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं होता।<br />
दीरघ रोगी दारिदी कटुबच लोलुप लोग।<br />
तुलसी प्रान समान तउ होहिं निरादर जोग॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्राण के समान प्यारे होने पर भी बहुत दिनों के रोगी, दरिद्र, कटु वचन बोलनेवाले और लालची-ये चारों निरादर के योग्य ही हो जाते हैं।<br />
तुलसी सो समरथ सुमति सुकृती साधु सयान।<br />
जो बिचारि ब्यवहरइ जग खरच लाभ अनुमान॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि वही पुरुष सामर्थ्यवान्, बुद्धिमान, पुण्यात्मा, साधु और चतुर है जो आय के अनुमान से ही व्यय करता है और जगत् में विचारपूर्वक व्यवहार करता है।<br />
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।<br />
आपुनु आवइ ताहि पै ताहि तहाँ लै जाइ॥<br />
तुलसीदासजी कहते हैं कि जैसी होनहार होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह स्वयं उसके पास आती है या उसे वहाँ ले जाती है।<br />
संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।<br />
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥<br />
भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का यह दृढ मत है कि जिनको शिवजी प्रिय हैं, किंतु जो मुझसे विरोध रखते हैं अथवा जो शिवजी से विरोध रखते हैं और मेरे दास बनना चाहते हैं, वे मनुष्य एक कल्पतक घोर नरक में पडे रहते हैं। अतएव श्रीशंकरजी और श्रीरामजी में कोई ऊंच-नीच का भेद नहीं मानना चाहिये। </span></b></div>जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-11240893562030541142010-04-27T10:10:00.001-07:002010-04-27T10:10:57.686-07:00सूरदास के पद : श्रीकृष्ण बालचरित<b style="color: red;"></b><div style="color: red;"><b>हरि पालनैं झुलावै</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जसोदा हरि पालनैं झुलावै।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि करि करि सैन बतावै॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>इहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरैं गावै।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नंद भामिनि पावै॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>राग घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदास जी ने भगवान् बालकृष्ण की शयनावस्था का सुंदर चित्रण किया है। वह कहते हैं कि मैया यशोदा श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) को पालने में झुला रही हैं। कभी तो वह पालने को हल्का-सा हिला देती हैं, कभी कन्हैया को प्यार करने लगती हैं और कभी मुख चूमने लगती हैं। ऐसा करते हुए वह जो मन में आता है वही गुनगुनाने भी लगती हैं। लेकिन कन्हैया को तब भी नींद नहीं आती है। इसीलिए यशोदा नींद को उलाहना देती हैं कि अरी निंदिया तू आकर मेरे लाल को सुलाती क्यों नहीं? तू शीघ्रता से क्यों नहीं आती? देख, तुझे कान्हा बुलाता है। जब यशोदा निंदिया को उलाहना देती हैं तब श्रीकृष्ण कभी तो पलकें मूंद लेते हैं और कभी होंठों को फडकाते हैं। (यह सामान्य-सी बात है कि जब बालक उनींदा होता है तब उसके मुखमंडल का भाव प्राय: ऐसा ही होता है जैसा कन्हैया के मुखमंडल पर सोते समय जाग्रत हुआ।) जब कन्हैया ने नयन मूंदे तब यशोदा ने समझा कि अब तो कान्हा सो ही गया है। तभी कुछ गोपियां वहां आई। गोपियों को देखकर यशोदा उन्हें संकेत से शांत रहने को कहती हैं। इसी अंतराल में श्रीकृष्ण पुन: कुनमुनाकर जाग गए। तब यशोदा उन्हें सुलाने के उद्देश्य से पुन: मधुर-मधुर लोरियां गाने लगीं। अंत में सूरदास नंद पत्नी यशोदा के भाग्य की सराहना करते हुए कहते हैं कि सचमुच ही यशोदा बडभागिनी हैं। क्योंकि ऐसा सुख तो देवताओं व ऋषि-मुनियों को भी दुर्लभ है।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मुख दधि लेप किए</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सोभित कर नवनीत लिए।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>राग बिलावल पर आधारित इस पद में श्रीकृष्ण की बाल लीला का अद्भुत वर्णन किया है भक्त शिरोमणि सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल ही चल पाते हैं। एक दिन उन्होंने ताजा निकला माखन एक हाथ में लिया और लीला करने लगे। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के छोटे-से एक हाथ में ताजा माखन शोभायमान है और वह उस माखन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं। उनके शरीर पर रेनु (मिट्टी का रज) लगी है। मुख पर दही लिपटा है, उनके कपोल (गाल) सुंदर तथा नेत्र चपल हैं। ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा है। बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं। जब वह घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भ्रमर मधुर रस का पान कर मतवाले हो गए हैं। उनके इस सौंदर्य की अभिवृद्धि उनके गले में पडे कठुले (कंठहार) व सिंह नख से और बढ जाती है। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए। अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक ही है।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुं बढैगी चोटी</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मैया कबहुं बढैगी चोटी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>काढत गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>रामकली राग में बद्ध यह पद बहुत सरस है। बाल स्वभाववश प्राय: श्रीकृष्ण दूध पीने में आनाकानी किया करते थे। तब एक दिन माता यशोदा ने प्रलोभन दिया कि कान्हा! तू नित्य कच्चा दूध पिया कर, इससे तेरी चोटी दाऊ (बलराम) जैसी मोटी व लंबी हो जाएगी। मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे। अधिक समय बीतने पर एक दिन कन्हैया बोले.. अरी मैया! मेरी यह चोटी कब बढेगी? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया। लेकिन अब तक भी यह वैसी ही छोटी है। तू तो कहती थी कि दूध पीने से मेरी यह चोटी दाऊ की चोटी जैसी लंबी व मोटी हो जाएगी। संभवत: इसीलिए तू मुझे नित्य नहलाकर बालों को कंघी से संवारती है, चोटी गूंथती है, जिससे चोटी बढकर नागिन जैसी लंबी हो जाए। कच्चा दूध भी इसीलिए पिलाती है। इस चोटी के ही कारण तू मुझे माखन व रोटी भी नहीं देती। इतना कहकर श्रीकृष्ण रूठ जाते हैं। सूरदास कहते हैं कि तीनों लोकों में श्रीकृष्ण-बलराम की जोडी मन को सुख पहुंचाने वाली है।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>दाऊ बहुत खिझायो</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मो सों कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कहा करौं इहि रिस के मारें खेलन हौं नहिं जात।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>पुनि पुनि कहत कौन है माता को है तेरो तात॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>गोरे नंद जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>चुटकी दै दै ग्वाल नचावत हंसत सबै मुसुकात॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुं न खीझै।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मोहन मुख रिस की ये बातैं जसुमति सुनि सुनि रीझै॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सुनहु कान बलभद्र चबाई जनमत ही को धूत।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूर स्याम मोहिं गोधन की सौं हौं माता तू पूत॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास जी की यह रचना राग गौरी पर आधारित है। यह पद भगवान् श्रीकृष्ण की बाल लीला से संबंधित पहलू का सजीव चित्रण है। बलराम श्रीकृष्ण के बडे भाई थे। गौरवर्ण बलराम श्रीकृष्ण के श्याम रंग पर यदा-कदा उन्हें चिढाया करते थे। एक दिन कन्हैया ने मैया से बलराम की शिकायत की। वह कहने लगे कि मैया री, दाऊ मुझे ग्वाल-बालों के सामने बहुत चिढाता है। वह मुझसे कहता है कि यशोदा मैया ने तुझे मोल लिया है। क्या करूं मैया! इसी कारण मैं खेलने भी नहीं जाता। वह मुझसे बार-बार कहता है कि तेरी माता कौन है और तेरे पिता कौन हैं? क्योंकि नंदबाबा तो गोरे हैं और मैया यशोदा भी गौरवर्णा हैं। लेकिन तू सांवले रंग का कैसे है? यदि तू उनका पुत्र होता तो तुझे भी गोरा होना चाहिए। जब दाऊ ऐसा कहता है तो ग्वाल-बाल चुटकी बजाकर मेरा उपहास करते हैं, मुझे नचाते हैं और मुस्कराते हैं। इस पर भी तू मुझे ही मारने को दौडती है। दाऊ को कभी कुछ नहीं कहती। श्रीकृष्ण की रोष भरी बातें सुनकर मैया यशोदा रीझने लगी हैं। फिर कन्हैया को समझाकर कहती हैं कि कन्हैया! वह बलराम तो बचपन से ही चुगलखोर और धूर्त है। सूरदास कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण मैया की बातें सुनकर भी नहीं माने तब यशोदा बोलीं कि कन्हैया मैं गउओं की सौगंध खाकर कहती हूँ कि तू मेरा ही पुत्र है और मैं तेरी मैया हूँ।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मैं नहिं माखन खायो</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मैया! मैं नहिं माखन खायो।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>राग रामकली में बद्ध यह सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद है। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिद्ध है। वैसे तो कन्हैया ग्वालिनों के घरों में जा-जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा ने उन्हें देख भी लिया। इस पद में सूरदास ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जब यशोदा ने देख लिया कि कान्हा ने माखन खाया है तो पूछ ही लिया कि क्यों रे कान्हा! तूने माखन खाया है क्या? तब श्रीकृष्ण अपना पक्ष किस तरह मैया के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, यही इस पद की विशिष्टता है। कन्हैया बोले.. मैया! मैंने माखन नहीं खाया है। मुझे तो ऐसा लगता है कि इन ग्वाल-बालों ने ही बलात् मेरे मुख पर माखन लगा दिया है। फिर बोले कि मैया तू ही सोच, तूने यह छींका किना ऊंचा लटका रखा है और मेरे हाथ कितने छोटे-छोटे हैं। इन छोटे हाथों से मैं कैसे छींके को उतार सकता हूँ। कन्हैया ने मुख से लिपटा माखन पोंछा और एक दोना जिसमें माखन बचा रह गया था उसे पीछे छिपा लिया। कन्हैया की इस चतुराई को देखकर यशोदा मन ही मन मुस्कराने लगीं और छडी फेंककर कन्हैया को गले से लगा लिया। सूरदास कहते हैं कि यशोदा को जिस सुख की प्राप्ति हुई वह सुख शिव व ब्रह्मा को भी दुर्लभ है। श्रीकृष्ण (भगवान् विष्णु) ने बाल लीलाओं के माध्यम से यह सिद्ध किया है कि भक्ति का प्रभाव कितना महत्त्वपूर्ण है।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>हरष आनंद बढावत</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>हरि अपनैं आंगन कछु गावत।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढावत।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>राग रामकली में आबद्ध इस पद में सूरदास ने कृष्ण की बालसुलभ चेष्टा का वर्णन किया है। श्रीकृष्ण अपने ही घर के आंगन में जो मन में आता है गाते हैं। वह छोटे-छोटे पैरों से थिरकते हैं तथा मन ही मन स्वयं को रिझाते भी हैं। कभी वह भुजाओं को उठाकर काली-श्वेत गायों को बुलाते हैं, तो कभी नंदबाबा को पुकारते हैं और कभी घर में आ जाते हैं। अपने हाथों में थोडा-सा माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते हैं, तो कभी खंभे में अपना ही प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाने लगते हैं। श्रीकृष्ण की इन सभी लीलाओं को माता यशोदा छुप-छुपकर देखती हैं और मन ही मन प्रसन्न होती हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार यशोदा श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को देखकर नित्य ही हर्षाती हैं।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>भई सहज मत भोरी</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जो तुम सुनहु जसोदा गोरी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>हौं भइ जाइ अचानक ठाढी कह्यो भवन में कोरी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास जी का यह पद राग गौरी पर आधारित है। भगवान् की बाल लीला का रोचक वर्णन है। एक ग्वालिन यशोदा के पास कन्हैया की शिकायत लेकर आई। वह बोली कि हे नंदभामिनी यशोदा! सुनो तो, नंदनंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी करने गए। पीछे से मैं भी अपने भवन के निकट ही छुपकर खडी हो गई। मैंने अपने शरीर को सिकोड लिया और भोलेपन से उन्हें देखती रही। जब मैंने देखा कि माखन भरी वह मटकी बिल्कुल ही खाली हो गई है तो मुझे बहुत पछतावा हुआ। जब मैंने आगे बढकर कन्हैया की बांह पकड ली और शोर मचाने लगी, तब कन्हैया मेरे चरणों को पकडकर मेरी मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनके नयनों में अश्रु भी भर आए। ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड दिया। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाएं कर कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>अरु हलधर सों भैया</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कहन लागे मोहन मैया मैया।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>ऊंच चढि चढि कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास जी का यह पद राग देव गंधार में आबद्ध है। भगवान् बालकृष्ण मैया, बाबा और भैया कहने लगे हैं। सूरदास कहते हैं कि अब श्रीकृष्ण मुख से यशोदा को मैया-मैया नंदबाबा को बाबा-बाबा व बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे हैं। इना ही नहीं अब वह नटखट भी हो गए हैं, तभी तो यशोदा ऊंची होकर अर्थात् कन्हैया जब दूर चले जाते हैं तब उचक-उचककर कन्हैया को नाम लेकर पुकारती हैं और कहती हैं कि लल्ला गाय तुझे मारेगी। सूरदास कहते हैं कि गोपियों व ग्वालों को श्रीकृष्ण की लीलाएं देखकर अचरज होता है। श्रीकृष्ण अभी छोटे ही हैं और लीलाएं भी उनकी अनोखी हैं। इन लीलाओं को देखकर ही सब लोग बधाइयां दे रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुं बोलत तात</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>खीझत जात माखन खात।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>अरुन लोचन भौंह टेढी बार बार जंभात॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार श्रीकृष्ण माखन खाते-खाते रूठ गए और रूठे भी ऐसे कि रोते-रोते नेत्र लाल हो गए। भौंहें वक्र हो गई और बार-बार जंभाई लेने लगे। कभी वह घुटनों के बल चलते थे जिससे उनके पैरों में पडी पैंजनिया में से रुनझुन स्वर निकलते थे। घुटनों के बल चलकर ही उन्होंने सारे शरीर को धूल-धूसरित कर लिया। कभी श्रीकृष्ण अपने ही बालों को खींचते और नैनों में आंसू भर लाते। कभी तोतली बोली बोलते तो कभी तात ही बोलते। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा को देखकर यशोदा उन्हें एक पल भी छोडने को न हुई अर्थात् श्रीकृष्ण की इन छोटी-छोटी लीलाओं में उन्हें अद्भुत रस आने लगा।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>चोरि माखन खात</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>चली ब्रज घर घरनि यह बात।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>भगवान् श्रीकृष्ण की बाललीला से संबंधित सूरदास जी का यह पद राग कान्हडा पर आधारित है। ब्रज के घर-घर में इस बात की चर्चा हो गई कि नंदपुत्र श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं। एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें ऐसी ही चर्चा कर रही थीं। उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पूर्व तो वह मेरे ही घर में आए थे। कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खडी देखकर वह भाग गए। एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं। मैं तो उन्हें इतना अधिक और उत्तम माखन दूं जितना वह खा सकें। लेकिन किसी भांति वह मेरे घर तो आएं। तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिखाई पड जाएं तो मैं गोद में भर लूं। एक अन्य ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वह मिल जाएं तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुडा ही न सके। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु मिलन की जुगत बिठा रही थीं। कुछ ग्वालिनें यह भी विचार कर रही थीं कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएं तो वह हाथ जोडकर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>गाइ चरावन जैहौं</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार बालकृष्ण ने हठ पकड लिया कि मैया आज तो मैं गौएं चराने जाऊंगा। साथ ही वृन्दावन के वन में उगने वाले नाना भांति के फलों को भी अपने हाथों से खाऊंगा। इस पर यशोदा ने कृष्ण को समझाया कि अभी तो तू बहुत छोटा है। इन छोटे-छोटे पैरों से तू कैसे चल पाएगा.. और फिर लौटते समय रात्रि भी हो जाती है। तुझसे अधिक आयु के लोग गायों को चराने के लिए प्रात: घर से निकलते हैं और संध्या होने पर लौटते हैं। सारे दिन धूप में वन-वन भटकना पडता है। फिर तेरा वदन पुष्प के समान कोमल है, यह धूप को कैसे सहन कर पाएगा।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>यशोदा के समझाने का कृष्ण पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, बल्कि उलटकर बोले, मैया! मैं तेरी सौगंध खाकर कहता हूं कि मुझे धूप नहीं लगती और न ही भूख सताती है। सूरदास कहते हैं कि परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण ने यशोदा की एक नहीं मानी और अपनी ही बात पर अटल रहे।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>धेनु चराए आवत</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>आजु हरि धेनु चराए आवत।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मोर मुकुट बनमाल बिराज पीतांबर फहरावत॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जिहिं जिहिं भांति ग्वाल सब बोलत सुनि स्त्रवनन मन राखत।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>आपुन टेर लेत ताही सुर हरषत पुनि पुनि भाषत॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>देखत नंद जसोदा रोहिनि अरु देखत ब्रज लोग।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूर स्याम गाइन संग आए मैया लीन्हे रोग॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>भगवान् बालकृष्ण जब पहले दिन गाय चराने वन में जाते है, उसका अप्रतिम वर्णन किया है सूरदास जी ने अपने इस पद के माध्यम से। यह पद राग गौरी में बद्ध है। आज प्रथम दिवस श्रीहरि गौओं को चराकर आए हैं। उनके शीश पर मयूरपुच्छ का मुकुट शोभित है, तन पर पीतांबरी धारण किए हैं। गायों को चराते समय जिस प्रकार से अन्य ग्वाल-बाल शब्दोच्चारण करते हैं उनको श्रवण कर श्रीहरि ने हृदयंगम कर लिया है। वन में स्वयं भी वैसे ही शब्दों का उच्चारण कर प्रतिध्वनि सुनकर हर्षित होते हैं। नंद, यशोदा, रोहिणी व ब्रज के अन्य लोग यह सब दूर ही से देख रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि जब श्यामसुंदर गौओं को चराकर आए तो यशोदा ने उनकी बलैयां लीं।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मुखहिं बजावत बेनु</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>धनि यह बृंदावन की रेनु।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>राग सारंग पर आधारित इस पद में सूरदास कहते हैं कि वह ब्रजरज धन्य है जहां नंदपुत्र श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं। उस भूमि पर श्यामसुंदर का ध्यान (स्मरण) करने से मन को परम शांति मिलती है। सूरदास मन को प्रबोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तू काहे इधर-उधर भटकता है। ब्रज में ही रह, जहां व्यावहारिकता से परे रहकर सुख प्राप्ति होती है। यहां न किसी से लेना, न किसी को देना। सब ध्यानमग्न हो रहे हैं। ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बासनों (बरतनों) से जो कुछ प्राप्त हो उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती। इस पद में सूरदास ने ब्रज भूमि का महत्त्व प्रतिपादित किया है।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कौन तू गोरी</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>बूझत स्याम कौन तू गोरी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरसागर से उद्धृत यह पद राग तोडी में बद्ध है। राधा के प्रथम मिलन का इस पद में वर्णन किया है सूरदास जी ने। श्रीकृष्ण ने पूछा कि हे गोरी! तुम कौन हो? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो? हमने पहले कभी ब्रज की इन गलियों में तुम्हें नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहतीं। इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी कि नंदजी का लडका माखन की चोरी करता फिरता है। तब कृष्ण बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे। अच्छा, हम मिलजुलकर खेलते हैं। सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार रसिक कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मिटि गई अंतरबाधा</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>खेलौ जाइ स्याम संग राधा।</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>यह सुनि कुंवरि हरष मन कीन्हों मिटि गई अंतरबाधा॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>जननी निरखि चकित रहि ठाढी दंपति रूप अगाधा॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>देखति भाव दुहुंनि को सोई जो चित करि अवराधा॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>संग खेलत दोउ झगरन लागे सोभा बढी अगाधा॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>मनहुं तडित घन इंदु तरनि ह्वै बाल करत रस साधा॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>निरखत बिधि भ्रमि भूलि पर्यौ तब मन मन करत समाधा॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>सूरदास प्रभु और रच्यो बिधि सोच भयो तन दाधा॥</b></div><div style="color: red;"><b><br />
</b></div><div style="color: red;"><b>रास रासेश्वरी राधा और रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण एक ही अंश से अवतरित हुये थे। अपनी रास लीलाओं से ब्रज की भूमि को उन्होंने गौरवान्वित किया। वृषभानु व कीर्ति (राधा के माँ-बाप) ने यह निश्चय किया कि राधा श्याम के संग खेलने जा सकती है। इस बात का राधा को पता लगा तब वह अति प्रसन्न हुई और उसके मन में जो बाधा थी वह समाप्त हो गई। (माता-पिता की स्वीकृति मिलने पर अब कोई रोक-टोक रही ही नहीं, इसी का लाभ उठाते हुए राधा श्यामसुंदर के संग खेलने लगी।) जब राधा-कृष्ण खेल रहे थे तब राधा की माता दूर खडी उन दोनों की जोडी को, जो अति सुंदर थी, देख रही थीं। दोनों की चेष्टाओं को देखकर कीर्तिदेवी मन ही मन प्रसन्न हो रही थीं। तभी राधा और कृष्ण खेलते-खेलते झगड पडे। उनका झगडना भी सौंदर्य की पराकाष्ठा ही थी। ऐसा लगता था मानो दामिनी व मेघ और चंद्र व सूर्य बालरूप में आनंद रस की अभिवृद्धि कर रहे हों। यह देखकर ब्रह्म भी भ्रमित हो गए और मन ही मन विचार करने लगे। सूरदास कहते हैं कि ब्रह्म को यह भ्रम हो गया कि कहीं जगत्पति ने अन्य सृष्टि तो नहीं रच डाली। ऐसा सोचकर उनमें ईष्र्याभाव उत्पन्न हो गया।</b></div>जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-65714814165194201952009-12-30T08:52:00.000-08:002009-12-30T08:53:23.537-08:00संत कबीर भजन संग्रह॥करम गति टारै<br /><br />करम गति टारै नाहिं टरी॥ टेक॥<br /><br />मुनि वसिष्ठ से पण्डित ज्ञानी सिधि के लगन धरि।<br />सीता हरन मरन दसरथ को बनमें बिपति परी॥ १॥<br /><br />कहॅं वह फन्द कहॉं वह पारधि कहॅं वह मिरग चरी।<br />कोटि गाय नित पुन्य करत नृग गिरगिट-जोन परि॥ २॥<br /><br />पाण्डव जिनके आप सारथी तिन पर बिपति परी।<br />कहत कबीर सुनो भै साधो होने होके रही॥ ३॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />रे दिल गाफिल<br /><br />रे दिल गाफिल गफलत मत कर<br />एक दिना जम आवेगा॥ टेक॥<br /><br />सौदा करने या जग आया<br />पूजी लाया मूल गॅंवाया<br />प्रेमनगर का अन्त न पाया<br />ज्यों आया त्यों जावेगा॥ १॥<br /><br />सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता<br />या जीवन में क्या क्या कीता<br />सिर पाहन का बोझा लीता<br />आगे कौन छुडावेगा॥ २॥<br /><br />परलि पार तेरा मीता खडिया<br />उस मिलने का ध्यान न धरिया<br />टूटी नाव उपर जा बैठा<br />गाफिल गोता खावेगा॥ ३॥<br /><br />दास कबीर कहै समुझाई<br />अन्त समय तेरा कौन सहाई<br />चला अकेला संग न को<br />कीया अपना पावेगा॥ ४॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />झीनी झीनी बीनी चदरिया<br /><br />झीनी झीनी बीनी चदरिया॥ टेक॥<br /><br />काहे कै ताना काहे कै भरनी<br />कौन तार से बीनी चदरिया॥ १॥<br /><br />इडा पिङ्गला ताना भरनी<br />सुखमन तार से बीनी चदरिया॥ २॥<br /><br />आठ कँवल दल चरखा डोलै<br />पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया॥ ३॥<br /><br />साँ को सियत मास दस लागे<br />ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया॥ ४॥<br /><br />सो चादर सुर नर मुनि ओढी<br />ओढि कै मैली कीनी चदरिया॥ ५॥<br /><br />दास कबीर जतन करि ओढी<br />ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया॥ ६॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />दिवाने मन<br /><br />दिवाने मन भजन बिना दुख पैहौ ॥ टेक॥<br /><br />पहिला जनम भूत का पै हौ सात जनम पछिताहौ।<br />कॉंटा पर का पानी पैहौ प्यासन ही मरि जैहौ॥ १॥<br /><br />दूजा जनम सुवा का पैहौ बाग बसेरा लैहौ।<br />टूटे पंख मॅंडराने अधफड प्रान गॅंवैहौ॥ २॥<br /><br />बाजीगर के बानर हो हौ लकडिन नाच नचैहौ।<br />ऊॅंच नीच से हाय पसरि हौ मॉंगे भीख न पैहौ॥ ३॥<br /><br />तेली के घर बैला होहौ ऑंखिन ढॉंपि ढॅंपैहौ।<br />कोस पचास घरै मॉं चलिहौ बाहर होन न पैहौ॥ ४॥<br /><br />पॅंचवा जनम ऊॅंट का पैहौ बिन तोलन बोझ लदैहौ।<br />बैठे से तो उठन न पैहौ खुरच खुरच मरि जैहौ॥ ५॥<br /><br />धोबी घर गदहा होहौ कटी घास नहिं पैंहौ।<br />लदी लादि आपु चढि बैठे लै घटे पहुॅंचैंहौ॥ ६॥<br /><br />पंछिन मॉं तो कौवा होहौ करर करर गुहरैहौ।<br />उडि के जय बैठि मैले थल गहिरे चोंच लगैहौ॥ ७॥<br /><br />सत्तनाम की हेर न करिहौ मन ही मन पछितैहौ।<br />कहै कबीर सुनो भै साधो नरक नसेनी पैहौ॥ ८॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />केहि समुझावौ<br /><br />केहि समुझावौ सब जग अन्धा॥ टेक॥<br /><br />इक दु होयॅं उन्हैं समुझावौं<br />सबहि भुलाने पेटके धन्धा।<br />पानी घोड पवन असवरवा<br />ढरकि परै जस ओसक बुन्दा॥ १॥<br />गहिरी नदी अगम बहै धरवा<br />खेवन- हार के पडिगा फन्दा।<br />घर की वस्तु नजर नहि आवत<br />दियना बारिके ढूॅंढत अन्धा॥ २॥<br />लागी आगि सबै बन जरिगा<br />बिन गुरुज्ञान भटकिगा बन्दा।<br />कहै कबीर सुनो भाई साधो<br />जाय लिङ्गोटी झारि के बन्दा॥ ३॥<br /><br />-------------------------------------------<br />बहुरि नहिं<br /><br />बहुरि नहिं आवना या देस॥ टेक॥<br /><br />जो जो ग बहुरि नहि आ पठवत नाहिं सॅंस॥ १॥<br />सुर नर मुनि अरु पीर औलिया देवी देव गनेस॥ २॥<br />धरि धरि जनम सबै भरमे हैं ब्रह्मा विष्णु महेस॥ ३॥<br />जोगी जङ्गम औ संन्यासी दीगंबर दरवेस॥ ४॥<br />चुंडित मुंडित पंडित लो सरग रसातल सेस॥ ५॥<br />ज्ञानी गुनी चतुर अरु कविता राजा रंक नरेस॥ ६॥<br />को राम को रहिम बखानै को कहै आदेस॥ ७॥<br />नाना भेष बनाय सबै मिलि ढूंढि फिरें चहुॅं देस॥ ८॥<br />कहै कबीर अंत ना पैहो बिन सतगुरु उपदेश॥ ९॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />मन लाग्यो मेरो यार<br />मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥<br /><br />जो सुख पाऊँ राम भजन में<br />सो सुख नाहिं अमीरी में<br />मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥<br /><br />भला बुरा सब का सुनलीजै<br />कर गुजरान गरीबी में<br />मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥<br /><br />आखिर यह तन छार मिलेगा<br />कहाँ फिरत मग़रूरी में<br />मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥<br /><br />प्रेम नगर में रहनी हमारी<br />साहिब मिले सबूरी में<br />मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥<br /><br />कहत कबीर सुनो भयी साधो<br />साहिब मिले सबूरी में<br />मन लाग्यो मेरो यार फ़कीरी में॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />भजो रे भैया<br /><br />भजो रे भैया राम गोविंद हरी।<br />राम गोविंद हरी भजो रे भैया राम गोविंद हरी॥<br /><br />जप तप साधन नहिं कछु लागत खरचत नहिं गठरी॥<br />संतत संपत सुख के कारन जासे भूल परी॥<br />कहत कबीर राम नहीं जा मुख् ता मुख धूल् भरी॥<br /><br />------------------------------<br /><br />बीत गये दिन<br /><br />बीत गये दिन भजन बिना रे।<br />भजन बिना रे भजन बिना रे॥<br /><br />बाल अवस्था खेल गवांयो।<br />जब यौवन तब मान घना रे॥<br /><br />लाहे कारण मूल गवाँयो।<br />अजहुं न गयी मन की तृष्णा रे॥<br /><br />कहत कबीर सुनो भ साधो।<br />पार उतर गये संत जना रे॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />नैया पड़ी मंझधार्<br />नैया पड़ी मंझधार गुरु बिन कैसे लागे पार्॥<br /><br />साहिब तुम मत भूलियो लाख लो भूलग जाये।<br />हम से तुमरे और हैं तुम सा हमरा नाहिं।<br />अंतरयामी एक तुम आतम के आधार।<br />जो तुम छोड़ो हाथ प्रभुजी कौन उतारे पार॥<br />गुरु बिन कैसे लागे पार॥<br /><br />मैं अपराधी जन्म को मन में भरा विकार।<br />तुम दाता दुख भंजन मेरी करो सम्हार।<br />अवगुन दास कबीर के बहुत गरीब निवाज़।<br />जो मैं पूत कपूत हूं कहौं पिता की लाज॥<br />गुरु बिन कैसे लागे पार॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />तूने रात गँवायी<br /><br />तूने रात गँवायी सोय के, दिवस गँवाया खाय के।<br />हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय॥<br /><br />सुमिरन लगन लगाय के मुख से कछु ना बोल रे।<br />बाहर का पट बंद कर ले अंतर का पट खोल रे।<br />माला फेरत जुग हुआ, गया ना मन का फेर रे।<br />गया ना मन का फेर रे।<br />हाथ का मनका छाँड़ि दे, मन का मनका फेर॥<br /><br />दुख में सुमिरन सब करें, सुख में करे न कोय रे।<br />जो सुख में सुमिरन करे तो दुख काहे को होय रे।<br />सुख में सुमिरन ना किया दुख में करता याद रे।<br />दुख में करता याद रे।<br />कहे कबीर उस दास की कौन सुने फ़रियाद॥<br /><br />-------------------------------------------<br /><br />राम बिनु<br /><br />राम बिनु तन को ताप न जाई।<br />जल में अगन रही अधिकाई॥<br />राम बिनु तन को ताप न जाई॥<br /><br />तुम जलनिधि मैं जलकर मीना।<br />जल में रहहि जलहि बिनु जीना॥<br />राम बिनु तन को ताप न जाई॥<br /><br />तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा।<br />दरसन देहु भाग बड़ मोरा॥<br />राम बिनु तन को ताप न जाई॥<br /><br />तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला।<br />कहै कबीर राम रमूं अकेला॥<br />राम बिनु तन को ताप न जाई॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-28883950880844362502009-12-30T08:45:00.002-08:002009-12-30T09:03:01.294-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ १०हस्ती चढ़िये ज्ञान की, सहज दुलीचा डार ।<br />श्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥ 901 ॥<br /><br />या दुनिया दो रोज की, मत कर या सो हेत ।<br />गुरु चरनन चित लाइये, जो पूरन सुख हेत ॥ 902 ॥<br /><br />कबीर यह तन जात है, सको तो राखु बहोर ।<br />खाली हाथों वह गये, जिनके लाख करोर ॥ 903 ॥<br /><br />सरगुन की सेवा करो, निरगुन का करो ज्ञान ।<br />निरगुन सरगुन के परे, तहीं हमारा ध्यान ॥ 904 ॥<br /><br />घन गरजै, दामिनि दमकै, बूँदैं बरसैं, झर लाग गए।<br />हर तलाब में कमल खिले, तहाँ भानु परगट भये॥ 905 ॥<br /><br />क्या काशी क्या ऊसर मगहर, राम हृदय बस मोरा।<br />जो कासी तन तजै कबीरा, रामे कौन निहोरा ॥ 906 ॥<br /><br />कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ |<br />ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ ||907||<br /><br />प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय |<br />राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ||908||<br /><br />माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर |<br />कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर ||909||<br /><br />माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर |<br />आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ||910||<br /><br />झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद |<br />खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ||911||<br /><br />वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर |<br />परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर ||912||<br /><br />साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय |<br />तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय ||913||<br /><br />सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार |<br />दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार ||914||<br /><br />जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं |<br />ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं ||915||<br /><br />मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ |<br />कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ||916||<br /><br />तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय |<br />कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय ||917||<br /><br />बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि |<br />हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि ||918||<br /><br />ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय |<br />औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय ||919||<br /><br />लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी |<br />चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी ||920||<br /><br />निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय |<br />बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय ||921||<br /><br />मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं |<br />मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं ||922||जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-46279338434430981612009-12-30T08:45:00.001-08:002009-12-30T08:45:33.793-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ ९कुल खोये कुल ऊबरै, कुल राखे कुल जाय ।<br />राम निकुल कुल भेटिया, सब कुल गया बिलाय ॥ 801 ॥<br /><br />दुनिया के धोखे मुआ, चला कुटुम की कानि ।<br />तब कुल की क्या लाज है, जब ले धरा मसानि ॥ 802 ॥<br /><br />दुनिया सेती दोसती, मुआ, होत भजन में भंग ।<br />एका एकी राम सों, कै साधुन के संग ॥ 803 ॥<br /><br />यह तन काँचा कुंभ है, यहीं लिया रहिवास ।<br />कबीरा नैन निहारिया, नाहिं जीवन की आस ॥ 804 ॥<br /><br />यह तन काँचा कुंभ है, चोट चहूँ दिस खाय ।<br />एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 805 ॥<br /><br />जंगल ढेरी राख की, उपरि उपरि हरियाय ।<br />ते भी होते मानवी, करते रंग रलियाय ॥ 806 ॥<br /><br />मलमल खासा पहिनते, खाते नागर पान ।<br />टेढ़ा होकर चलते, करते बहुत गुमान ॥ 807 ॥<br /><br />महलन माही पौढ़ते, परिमल अंग लगाय ।<br />ते सपने दीसे नहीं, देखत गये बिलाय ॥ 808 ॥<br /><br />ऊजल पीहने कापड़ा, पान-सुपारी खाय ।<br />कबीर गुरू की भक्ति बिन, बाँधा जमपुर जाय ॥ 809 ॥<br /><br />कुल करनी के कारने, ढिग ही रहिगो राम ।<br />कुल काकी लाजि है, जब जमकी धूमधाम ॥ 810 ॥<br /><br />कुल करनी के कारने, हंसा गया बिगोय ।<br />तब कुल काको लाजि है, चाकिर पाँव का होय ॥ 811 ॥<br /><br />मैं मेरी तू जानि करै, मेरी मूल बिनास ।<br />मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फाँस ॥ 812 ॥<br /><br />ज्यों कोरी रेजा बुनै, नीरा आवै छौर ।<br />ऐसा लेखा मीच का, दौरि सकै तो दौर ॥ 813 ॥<br /><br />इत पर धर उत है धरा, बनिजन आये हाथ ।<br />करम करीना बेचि के, उठि करि चालो काट ॥ 814 ॥<br /><br />जिसको रहना उतघरा, सो क्यों जोड़े मित्र ।<br />जैसे पर घर पाहुना, रहै उठाये चित्त ॥ 815 ॥<br /><br />मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।<br />मन परतीत न ऊपजै, जिय विस्वाय न होय ॥ 816 ॥<br /><br />मैं भौंरो तोहि बरजिया, बन बन बास न लेय ।<br />अटकेगा कहुँ बेलि में, तड़फि- तड़फि जिय देय ॥ 817 ॥<br /><br />दीन गँवायो दूनि संग, दुनी न चली साथ ।<br />पाँच कुल्हाड़ी मारिया, मूरख अपने हाथ ॥ 818 ॥<br /><br />तू मति जानै बावरे, मेरा है यह कोय ।<br />प्रान पिण्ड सो बँधि रहा, सो नहिं अपना होय ॥ 819 ॥<br /><br />या मन गहि जो थिर रहै, गहरी धूनी गाड़ि ।<br />चलती बिरयाँ उठि चला, हस्ती घोड़ा छाड़ि ॥ 820 ॥<br /><br />तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।<br />कोई काहू का है नहीं, देखा ठोंकि बजाय ॥ 821 ॥<br /><br />डर करनी डर परम गुरु, डर पारस डर सार ।<br />डरत रहै सो ऊबरे, गाफिल खाई मार ॥ 822 ॥<br /><br />भय से भक्ति करै सबै, भय से पूजा होय ।<br />भय पारस है जीव को, निरभय होय न कोय ॥ 823 ॥<br /><br />भय बिन भाव न ऊपजै, भय बिन होय न प्रीति ।<br />जब हिरदै से भय गया, मिटी सकल रस रीति ॥ 824 ॥<br /><br />काल चक्र चक्की चलै, बहुत दिवस औ रात ।<br />सुगन अगुन दोउ पाटला, तामें जीव पिसात ॥ 825 ॥<br /><br />बारी-बारी आपने, चले पियारे मीत ।<br />तेरी बारी जीयरा, नियरे आवै नीत ॥ 826 ॥<br /><br />एक दिन ऐसा होयगा, कोय काहु का नाहिं ।<br />घर की नारी को कहै, तन की नारी जाहिं ॥ 827 ॥<br /><br />बैल गढ़न्ता नर, चूका सींग रू पूँछ ।<br />एकहिं गुरुँ के ज्ञान बिनु, धिक दाढ़ी धिक मूँछ ॥ 828 ॥<br /><br />यह बिरियाँ तो फिर नहीं, मनमें देख विचार ।<br />आया लाभहिं कारनै, जनम जुवा मति हार ॥ 829 ॥<br /><br />खलक मिला खाली हुआ, बहुत किया बकवाद ।<br />बाँझ हिलावै पालना, तामें कौन सवाद ॥ 830 ॥<br /><br />चले गये सो ना मिले, किसको पूछूँ जात ।<br />मात-पिता-सुत बान्धवा, झूठा सब संघात ॥ 831 ॥<br /><br />विषय वासना उरझिकर जनम गँवाय जाद ।<br />अब पछितावा क्या करे, निज करनी कर याद ॥ 832 ॥<br /><br />हे मतिहीनी माछीरी! राखि न सकी शरीर ।<br />सो सरवर सेवा नहीं , जाल काल नहिं कीर ॥ 833 ॥<br /><br />मछरी यह छोड़ी नहीं, धीमर तेरो काल ।<br />जिहि जिहि डाबर धर करो, तहँ तहँ मेले जाल ॥ 834 ॥<br /><br />परदा रहती पदुमिनी, करती कुल की कान ।<br />घड़ी जु पहुँची काल की, छोड़ भई मैदान ॥ 835 ॥<br /><br />जागो लोगों मत सुवो, ना करूँ नींद से प्यार ।<br />जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥ 836 ॥<br /><br />क्या करिये क्या जोड़िये, तोड़े जीवन काज ।<br />छाड़ि छाड़ि सब जात है, देह गेह धन राज ॥ 837 ॥<br /><br />जिन घर नौबत बाजती, होत छतीसों राग ।<br />सो घर भी खाली पड़े, बैठने लागे काग ॥ 838 ॥<br /><br />कबीर काया पाहुनी, हंस बटाऊ माहिं ।<br />ना जानूं कब जायगा, मोहि भरोसा नाहिं ॥ 839 ॥<br /><br />जो तू परा है फंद में निकसेगा कब अंध ।<br />माया मद तोकूँ चढ़ा, मत भूले मतिमंद ॥ 840 ॥<br /><br />अहिरन की चोरी करै, करै सुई का दान ।<br />ऊँचा चढ़ि कर देखता, केतिक दुरि विमान ॥ 841 ॥<br /><br />नर नारायन रूप है, तू मति समझे देह ।<br />जो समझै तो समझ ले, खलक पलक में खोह ॥ 842 ॥<br /><br />मन मुवा माया मुई, संशय मुवा शरीर ।<br />अविनाशी जो न मरे, तो क्यों मरे कबीर ॥ 843 ॥<br /><br />मरूँ- मरूँ सब कोइ कहै, मेरी मरै बलाय ।<br />मरना था तो मरि चुका, अब को मरने जाय ॥ 844 ॥<br /><br />एक बून्द के कारने, रोता सब संसार ।<br />अनेक बून्द खाली गये, तिनका नहीं विचार ॥ 845 ॥<br /><br />समुझाये समुझे नहीं, धरे बहुत अभिमान ।<br />गुरु का शब्द उछेद है, कहत सकल हम जान ॥ 846 ॥<br /><br />राज पाट धन पायके, क्यों करता अभिमान ।<br />पड़ोसी की जो दशा, भई सो अपनी जान ॥ 847 ॥<br /><br />मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुनै विचार ।<br />सत्य शब्द नहिं खोजई, जावै जम के द्वार ॥ 848 ॥<br /><br />चेत सवेरे बाचरे, फिर पाछे पछिताय ।<br />तोको जाना दूर है, कहैं कबीर बुझाय ॥ 849 ॥<br /><br />क्यों खोवे नरतन वृथा, परि विषयन के साथ ।<br />पाँच कुल्हाड़ी मारही, मूरख अपने हाथ ॥ 850 ॥<br /><br />आँखि न देखे बावरा, शब्द सुनै नहिं कान ।<br />सिर के केस उज्ज्वल भये, अबहु निपट अजान ॥ 851 ॥<br /><br />ज्ञानी होय सो मानही, बूझै शब्द हमार ।<br />कहैं कबीर सो बाँचि है, और सकल जमधार ॥ 852 ॥<br /><br />॥ काल के विषय मे दोहे ॥<br /><br /><br />जोबन मिकदारी तजी, चली निशान बजाय ।<br />सिर पर सेत सिरायचा दिया बुढ़ापै आय ॥ 853 ॥<br /><br />कबीर टुक-टुक चोंगता, पल-पल गयी बिहाय ।<br />जिव जंजाले पड़ि रहा, दियरा दममा आय ॥ 854 ॥<br /><br />झूठे सुख को सुख कहै, मानत है मन मोद ।<br />जगत् चबैना काल का, कछु मूठी कछु गोद ॥ 855 ॥<br /><br />काल जीव को ग्रासई, बहुत कह्यो समुझाय ।<br />कहैं कबीर में क्या करूँ, कोई नहीं पतियाय ॥ 856 ॥<br /><br />निश्चय काल गरासही, बहुत कहा समुझाय ।<br />कहैं कबीर मैं का कहूँ, देखत न पतियाय ॥ 857 ॥<br /><br />जो उगै तो आथवै, फूलै सो कुम्हिलाय ।<br />जो चुने सो ढ़हि पड़ै, जनमें सो मरि जाय ॥ 858 ॥<br /><br />कुशल-कुशल जो पूछता, जग में रहा न कोय ।<br />जरा मुई न भय मुवा, कुशल कहाँ ते होय ॥ 859 ॥<br /><br />जरा श्वान जोबन ससा, काल अहेरी नित्त ।<br />दो बैरी बिच झोंपड़ा कुशल कहाँ सो मित्र ॥ 860 ॥<br /><br />बिरिया बीती बल घटा, केश पलटि भये और ।<br />बिगरा काज सँभारि ले, करि छूटने की ठौर ॥ 861 ॥<br /><br />यह जीव आया दूर ते, जाना है बहु दूर ।<br />बिच के बासे बसि गया, काल रहा सिर पूर ॥ 862 ॥<br /><br />कबीर गाफिल क्यों फिरै क्या सोता घनघोर ।<br />तेरे सिराने जम खड़ा, ज्यूँ अँधियारे चोर ॥ 863 ॥<br /><br />कबीर पगरा दूर है, बीच पड़ी है रात ।<br />न जानों क्या होयेगा, ऊगन्ता परभात ॥ 864 ॥<br /><br />कबीर मन्दिर आपने, नित उठि करता आल ।<br />मरहट देखी डरपता, चौडढ़े दीया डाल ॥ 865 ॥<br /><br />धरती करते एक पग, समुंद्र करते फाल ।<br />हाथों परबत लौलते, ते भी खाये काल ॥ 866 ॥<br /><br />आस पास जोधा खड़े, सबै बजावै गाल ।<br />मंझ महल से ले चला, ऐसा परबल काल ॥ 867 ॥<br /><br />चहुँ दिसि पाका कोट था, मन्दिर नगर मझार ।<br />खिरकी खिरकी पाहरू, गज बन्दा दरबार ॥<br /><br />चहुँ दिसि ठाढ़े सूरमा, हाथ लिये हाथियार ।<br />सबही यह तन देखता, काल ले गया मात ॥ 868 ॥<br /><br />हम जाने थे खायेंगे, बहुत जिमि बहु माल ।<br />ज्यों का त्यों ही रहि गया, पकरि ले गया काल ॥ 869 ॥<br /><br />काची काया मन अथिर, थिर थिर कर्म करन्त ।<br />ज्यों-ज्यों नर निधड़क फिरै, त्यों-त्यों काल हसन्त ॥ 870 ॥<br /><br />हाथी परबत फाड़ते, समुन्दर छूट भराय ।<br />ते मुनिवर धरती गले, का कोई गरब कराय ॥ 871 ॥<br /><br />संसै काल शरीर में, विषम काल है दूर ।<br />जाको कोई जाने नहीं, जारि करै सब धूर ॥ 872 ॥<br /><br />बालपना भोले गया, और जुवा महमंत ।<br />वृद्धपने आलस गयो, चला जरन्ते अन्त ॥ 873 ॥<br /><br />बेटा जाये क्या हुआ, कहा बजावै थाल ।<br />आवन-जावन होय रहा, ज्यों कीड़ी का नाल ॥ 874 ॥<br /><br /><br />ताजी छूटा शहर ते, कसबे पड़ी पुकार ।<br />दरवाजा जड़ा ही रहा, निकस गया असवार ॥ 875 ॥<br /><br />खुलि खेलो संसार में, बाँधि न सक्कै कोय ।<br />घाट जगाती क्या करै, सिर पर पोट न होय ॥ 876 ॥<br /><br />घाट जगाती धर्मराय, गुरुमुख ले पहिचान ।<br />छाप बिना गुरु नाम के, साकट रहा निदान ॥ 877 ॥<br /><br />संसै काल शरीर में, जारि करै सब धूरि ।<br />काल से बांचे दास जन जिन पै द्दाल हुजूर ॥ 878 ॥<br /><br />ऐसे साँच न मानई, तिलकी देखो जाय ।<br />जारि बारि कोयला करे, जमते देखा सोय ॥ 879 ॥<br /><br />जारि बारि मिस्सी करे, मिस्सी करि है छार ।<br />कहैं कबीर कोइला करै, फिर दै दै औतार ॥ 880 ॥<br /><br />काल पाय जब ऊपजो, काल पाय सब जाय ।<br />काल पाय सबि बिनिश है, काल काल कहँ खाय ॥ 881 ॥<br /><br />पात झरन्ता देखि के, हँसती कूपलियाँ ।<br />हम चाले तु मचालिहौं, धीरी बापलियाँ ॥ 882 ॥<br /><br />फागुन आवत देखि के, मन झूरे बनराय ।<br />जिन डाली हम केलि, सो ही ब्योरे जाय ॥ 883 ॥<br /><br />मूस्या डरपैं काल सों, कठिन काल को जोर ।<br />स्वर्ग भूमि पाताल में जहाँ जावँ तहँ गोर ॥ 884 ॥<br /><br />सब जग डरपै काल सों, ब्रह्मा, विष्णु महेश ।<br />सुर नर मुनि औ लोक सब, सात रसातल सेस ॥ 885॥<br /><br />कबीरा पगरा दूरि है, आय पहुँची साँझ ।<br />जन-जन को मन राखता, वेश्या रहि गयी बाँझ ॥ 886 ॥<br /><br />जाय झरोखे सोवता, फूलन सेज बिछाय ।<br />सो अब कहँ दीसै नहीं, छिन में गयो बोलाय ॥ 887 ॥<br /><br />काल फिरे सिर ऊपरै, हाथों धरी कमान ।<br />कहैं कबीर गहु ज्ञान को, छोड़ सकल अभिमान ॥ 888 ॥<br /><br />काल काल सब कोई कहै, काल न चीन्है कोय ।<br />जेती मन की कल्पना, काल कहवै सोय ॥ 889 ॥<br /><br />॥ उपदेश ॥<br /><br /><br />काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।<br />भले भलई पे लहै, बुरे बुराई होय ॥ 890 ॥<br /><br />काल काम तत्काल है, बुरा न कीजै कोय ।<br />अनबोवे लुनता नहीं, बोवे लुनता होय ॥ 891 ॥<br /><br />लेना है सो जल्द ले, कही सुनी मान ।<br />कहीं सुनी जुग जुग चली, आवागमन बँधान ॥ 892 ॥<br /><br />खाय-पकाय लुटाय के, करि ले अपना काम ।<br />चलती बिरिया रे नरा, संग न चले छदाम ॥ 893 ॥<br /><br />खाय-पकाय लुटाय के, यह मनुवा मिजमान ।<br />लेना होय सो लेई ले, यही गोय मैदान ॥ 894 ॥<br /><br />गाँठि होय सो हाथ कर, हाथ होय सी देह ।<br />आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह ॥ 895 ॥<br /><br />देह खेह खोय जायगी, कौन कहेगा देह ।<br />निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फल येह ॥ 896 ॥<br /><br />कहै कबीर देय तू, सब लग तेरी देह ।<br />देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ॥ 897 ॥<br /><br />देह धरे का गुन यही, देह देह कछु देह ।<br />बहुरि न देही पाइये, अकी देह सुदेह ॥ 898 ॥<br /><br />सह ही में सत बाटई, रोटी में ते टूक ।<br /><br />कहैं कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 899 ॥<br /><br />कहते तो कहि जान दे, गुरु की सीख तु लेय ।<br />साकट जन औ श्वान को, फेरि जवाब न देय ॥ 900 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-62841725512747829492009-12-30T08:44:00.001-08:002009-12-30T08:44:53.301-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ ८सेवक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय ।<br />कहैं कबीर सेवा बिना, सेवक कभी न होय ॥ 701 ॥<br /><br />अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय ।<br />यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिहाय ॥ 702 ॥<br /><br />यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय ।<br />सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ॥ 703 ॥<br /><br />गुरु आज्ञा मानै नहीं, चलै अटपटी चाल ।<br />लोक वेद दोनों गये, आये सिर पर काल ॥ 704 ॥<br /><br />आशा करै बैकुण्ठ की, दुरमति तीनों काल ।<br />शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ॥ 705 ॥<br /><br />द्वार थनी के पड़ि रहे, धका धनी का खाय ।<br />कबहुक धनी निवाजि है, जो दर छाड़ि न जाय ॥ 706 ॥<br /><br />उलटे सुलटे बचन के शीष न मानै दुख ।<br />कहैं कबीर संसार में, सो कहिये गुरुमुख ॥ 707 ॥<br /><br />कहैं कबीर गुरु प्रेम बस, क्या नियरै क्या दूर ।<br />जाका चित जासों बसै सौ तेहि सदा हजूर ॥ 708 ॥<br /><br />गुरु आज्ञा लै आवही, गुरु आज्ञा लै जाय ।<br />कहैं कबीर सो सन्त प्रिय, बहु विधि अमृत पाय ॥ 709 ॥<br /><br />गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुजंग ।<br />कहैं कबीर बिसरे नहीं, यह गुरु मुख के अंग ॥ 710 ॥<br /><br />यह सब तच्छन चितधरे, अप लच्छन सब त्याग ।<br />सावधान सम ध्यान है, गुरु चरनन में लाग ॥ 711 ॥<br /><br />ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत ।<br />सत्यवार परमारथी, आदर भाव सहेत ॥ 712 ॥<br /><br />दया और धरम का ध्वजा, धीरजवान प्रमान ।<br />सन्तोषी सुख दायका, सेवक परम सुजान ॥ 713 ॥<br /><br />शीतवन्त सुन ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।<br />लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 714 ॥<br /><br />॥ दासता पर दोहे ॥<br /><br /><br />कबीर गुरु कै भावते, दूरहि ते दीसन्त ।<br />तन छीना मन अनमना, जग से रूठि फिरन्त ॥ 715 ॥<br /><br />कबीर गुरु सबको चहै, गुरु को चहै न कोय ।<br />जब लग आश शरीर की, तब लग दास न होय ॥ 716 ॥<br /><br />सुख दुख सिर ऊपर सहै, कबहु न छोड़े संग ।<br />रंग न लागै का, व्यापै सतगुरु रंग ॥ 717 ॥<br /><br />गुरु समरथ सिर पर खड़े, कहा कभी तोहि दास ।<br />रिद्धि-सिद्धि सेवा करै, मुक्ति न छोड़े पास ॥ 718 ॥<br /><br />लगा रहै सत ज्ञान सो, सबही बन्धन तोड़ ।<br />कहैं कबीर वा दास सो, काल रहै हथजोड़ ॥ 719 ॥<br /><br />काहू को न संतापिये, जो सिर हन्ता होय ।<br />फिर फिर वाकूं बन्दिये, दास लच्छन है सोय ॥ 720 ॥<br /><br />दास कहावन कठिन है, मैं दासन का दास ।<br />अब तो ऐसा होय रहूँ पाँव तले की घास ॥ 721 ॥<br /><br />दासातन हिरदै बसै, साधुन सो अधीन ।<br />कहैं कबीर सो दास है, प्रेम भक्ति लवलीन ॥ 722 ॥<br /><br />दासातन हिरदै नहीं, नाम धरावै दास ।<br />पानी के पीये बिना, कैसे मिटै पियास ॥ 723 ॥<br /><br />॥ भक्ति पर दोहे ॥<br /><br /><br />भक्ति कठिन अति दुर्लभ, भेष सुगम नित सोय ।<br />भक्ति जु न्यारी भेष से, यह जनै सब कोय ॥ 724 ॥<br /><br />भक्ति बीज पलटै नहीं जो जुग जाय अनन्त ।<br />ऊँच-नीच धर अवतरै, होय सन्त का अन्त ॥ 725 ॥<br /><br />भक्ति भाव भादौं नदी, सबै चली घहराय ।<br />सरिता सोई सराहिये, जेठ मास ठहराय ॥ 726 ॥<br /><br />भक्ति जु सीढ़ी मुक्ति की, चढ़े भक्त हरषाय ।<br />और न कोई चढ़ि सकै, निज मन समझो आय ॥ 727 ॥<br /><br />भक्ति दुहेली गुरुन की, नहिं कायर का काम ।<br />सीस उतारे हाथ सों, ताहि मिलै निज धाम ॥ 728 ॥<br /><br />भक्ति पदारथ तब मिलै, जब गुरु होय सहाय ।<br />प्रेम प्रीति की भक्ति जो, पूरण भाग मिलाय ॥ 729 ॥<br /><br />भक्ति भेष बहु अन्तरा, जैसे धरनि अकाश ।<br />भक्त लीन गुरु चरण में, भेष जगत की आश ॥ 730 ॥<br /><br />कबीर गुरु की भक्ति करूँ, तज निषय रस चौंज ।<br />बार-बार नहिं पाइये, मानुष जन्म की मौज ॥ 731 ॥<br /><br />भक्ति दुवारा साँकरा, राई दशवें भाय ।<br />मन को मैगल होय रहा, कैसे आवै जाय ॥ 732 ॥<br /><br />भक्ति बिना नहिं निस्तरे, लाख करे जो कोय ।<br />शब्द सनेही होय रहे, घर को पहुँचे सोय ॥ 733 ॥<br /><br />भक्ति नसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब धाय ।<br />जिन-जिन आलस किया, जनम जनम पछिताय ॥ 734 ॥<br /><br />गुरु भक्ति अति कठिन है, ज्यों खाड़े की धार ।<br />बिना साँच पहुँचे नहीं, महा कठिन व्यवहार ॥ 735 ॥<br /><br />भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहीं भाव ।<br />भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥ 736 ॥<br /><br />कबीर गुरु की भक्ति का, मन में बहुत हुलास ।<br />मन मनसा माजै नहीं, होन चहत है दास ॥ 737 ॥<br /><br />कबीर गुरु की भक्ति बिन, धिक जीवन संसार ।<br />धुवाँ का सा धौरहरा, बिनसत लगै न बार ॥ 738 ॥<br /><br />जाति बरन कुल खोय के, भक्ति करै चितलाय ।<br />कहैं कबीर सतगुरु मिलै, आवागमन नशाय ॥ 739 ॥<br /><br />देखा देखी भक्ति का, कबहुँ न चढ़ सी रंग ।<br />बिपति पड़े यों छाड़सी, केचुलि तजत भुजंग ॥ 740 ॥<br /><br />आरत है गुरु भक्ति करूँ, सब कारज सिध होय ।<br />करम जाल भौजाल में, भक्त फँसे नहिं कोय ॥ 741 ॥<br /><br />जब लग भक्ति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।<br />कहैं कबीर वह क्यों मिलै, निहकामी निजदेव ॥ 742 ॥<br /><br />पेटे में भक्ति करै, ताका नाम सपूत ।<br />मायाधारी मसखरैं, लेते गये अऊत ॥ 743 ॥<br /><br />निर्पक्षा की भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान ।<br />निरद्वंद्वी की भक्ति है, निर्लोभी निर्बान ॥ 744 ॥<br /><br />तिमिर गया रवि देखते, मुमति गयी गुरु ज्ञान ।<br />सुमति गयी अति लोभ ते, भक्ति गयी अभिमान ॥ 745 ॥<br /><br />खेत बिगारेउ खरतुआ, सभा बिगारी कूर ।<br />भक्ति बिगारी लालची, ज्यों केसर में घूर ॥ 746 ॥<br /><br />ज्ञान सपूरण न भिदा, हिरदा नाहिं जुड़ाय ।<br />देखा देखी भक्ति का, रंग नहीं ठहराय ॥ 747 ॥<br /><br />भक्ति पन्थ बहुत कठिन है, रती न चालै खोट ।<br />निराधार का खोल है, अधर धार की चोट ॥ 748 ॥<br /><br />भक्तन की यह रीति है, बंधे करे जो भाव ।<br />परमारथ के कारने यह तन रहो कि जाव ॥ 749 ॥<br /><br />भक्ति महल बहु ऊँच है, दूरहि ते दरशाय ।<br />जो कोई जन भक्ति करे, शोभा बरनि न जाय ॥ 750 ॥<br /><br />और कर्म सब कर्म है, भक्ति कर्म निहकर्म ।<br />कहैं कबीर पुकारि के, भक्ति करो तजि भर्म ॥ 751 ॥<br /><br />विषय त्याग बैराग है, समता कहिये ज्ञान ।<br />सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥ 752 ॥<br /><br />भक्ति निसेनी मुक्ति की, संत चढ़े सब आय ।<br />नीचे बाधिनि लुकि रही, कुचल पड़े कू खाय ॥ 753 ॥<br /><br />भक्ति भक्ति सब कोइ कहै, भक्ति न जाने मेव ।<br />पूरण भक्ति जब मिलै, कृपा करे गुरुदेव ॥ 754 ॥<br /><br />॥ चेतावनी ॥<br /><br /><br />कबीर गर्ब न कीजिये, चाम लपेटी हाड़ ।<br />हयबर ऊपर छत्रवट, तो भी देवैं गाड़ ॥ 755 ॥<br /><br />कबीर गर्ब न कीजिये, ऊँचा देखि अवास ।<br />काल परौं भुंइ लेटना, ऊपर जमसी घास ॥ 756 ॥<br /><br />कबीर गर्ब न कीजिये, इस जीवन की आस ।<br />टेसू फूला दिवस दस, खंखर भया पलास ॥ 757 ॥<br /><br />कबीर गर्ब न कीजिये, काल गहे कर केस ।<br />ना जानो कित मारि हैं, कसा घर क्या परदेस ॥ 758 ॥<br /><br />कबीर मन्दिर लाख का, जाड़िया हीरा लाल ।<br />दिवस चारि का पेखना, विनशि जायगा काल ॥ 759 ॥<br /><br />कबीर धूल सकेलि के, पुड़ी जो बाँधी येह ।<br />दिवस चार का पेखना, अन्त खेह की खेह ॥ 760 ॥<br /><br />कबीर थोड़ा जीवना, माढ़ै बहुत मढ़ान ।<br />सबही ऊभ पन्थ सिर, राव रंक सुल्तान ॥ 761 ॥<br /><br />कबीर नौबत आपनी, दिन दस लेहु बजाय ।<br />यह पुर पटृन यह गली, बहुरि न देखहु आय ॥ 762 ॥<br /><br />कबीर गर्ब न कीजिये, जाम लपेटी हाड़ ।<br />इस दिन तेरा छत्र सिर, देगा काल उखाड़ ॥ 763 ॥<br /><br />कबीर यह तन जात है, सकै तो ठोर लगाव ।<br />कै सेवा करूँ साधु की, कै गुरु के गुन गाव ॥ 764 ॥<br /><br />कबीर जो दिन आज है, सो दिन नहीं काल ।<br />चेति सकै तो चेत ले, मीच परी है ख्याल ॥ 765 ॥<br /><br />कबीर खेत किसान का, मिरगन खाया झारि ।<br />खेत बिचारा क्या करे, धनी करे नहिं बारि ॥ 766 ॥<br /><br />कबीर यह संसार है, जैसा सेमल फूल ।<br />दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग न भूल ॥ 767 ॥<br /><br />कबीर सपनें रैन के, ऊधरी आये नैन ।<br />जीव परा बहू लूट में, जागूँ लेन न देन ॥ 768 ॥<br /><br />कबीर जन्त्र न बाजई, टूटि गये सब तार ।<br />जन्त्र बिचारा क्याय करे, गया बजावन हार ॥ 769 ॥<br /><br />कबीर रसरी पाँव में, कहँ सोवै सुख-चैन ।<br />साँस नगारा कुँच का, बाजत है दिन-रैन ॥ 770 ॥<br /><br />कबीर नाव तो झाँझरी, भरी बिराने भाए ।<br />केवट सो परचै नहीं, क्यों कर उतरे पाए ॥ 771 ॥<br /><br />कबीर पाँच पखेरूआ, राखा पोष लगाय ।<br />एक जु आया पारधी, लइ गया सबै उड़ाय ॥ 772 ॥<br /><br />कबीर बेड़ा जरजरा, कूड़ा खेनहार ।<br />हरूये-हरूये तरि गये, बूड़े जिन सिर भार ॥ 773 ॥<br /><br />एक दिन ऐसा होयगा, सबसों परै बिछोह ।<br />राजा राना राव एक, सावधान क्यों नहिं होय ॥ 774 ॥<br /><br />ढोल दमामा दुरबरी, सहनाई संग भेरि ।<br />औसर चले बजाय के, है कोई रखै फेरि ॥ 775 ॥<br /><br />मरेंगे मरि जायँगे, कोई न लेगा नाम ।<br />ऊजड़ जाय बसायेंगे, छेड़ि बसन्ता गाम ॥ 776 ॥<br /><br />कबीर पानी हौज की, देखत गया बिलाय ।<br />ऐसे ही जीव जायगा, काल जु पहुँचा आय ॥ 777 ॥<br /><br />कबीर गाफिल क्या करे, आया काल नजदीक ।<br />कान पकरि के ले चला, ज्यों अजियाहि खटीक ॥ 778 ॥<br /><br />कै खाना कै सोवना, और न कोई चीत ।<br />सतगुरु शब्द बिसारिया, आदि अन्त का मीत ॥ 779 ॥<br /><br />हाड़ जरै जस लाकड़ी, केस जरै ज्यों घास ।<br />सब जग जरता देखि करि, भये कबीर उदास ॥ 780 ॥<br /><br />आज काल के बीच में, जंगल होगा वास ।<br />ऊपर ऊपर हल फिरै, ढोर चरेंगे घास ॥ 781 ॥<br /><br />ऊजड़ खेड़े टेकरी, धड़ि धड़ि गये कुम्हार ।<br />रावन जैसा चलि गया, लंका का सरदार ॥ 782 ॥<br /><br />पाव पलक की सुधि नहीं, करै काल का साज ।<br />काल अचानक मारसी, ज्यों तीतर को बाज ॥ 783 ॥<br /><br />आछे दिन पाछे गये, गुरु सों किया न हैत ।<br />अब पछितावा क्या करे, चिड़िया चुग गई खेत ॥ 784 ॥<br /><br />आज कहै मैं कल भजूँ, काल फिर काल ।<br />आज काल के करत ही, औसर जासी चाल ॥ 785 ॥<br /><br />कहा चुनावै मेड़िया, चूना माटी लाय ।<br />मीच सुनेगी पापिनी, दौरि के लेगी आय ॥ 786 ॥<br /><br />सातों शब्द जु बाजते, घर-घर होते राग ।<br />ते मन्दिर खाले पड़े, बैठने लागे काग ॥ 787 ॥<br /><br />ऊँचा महल चुनाइया, सुबरदन कली ढुलाय ।<br />वे मन्दिर खाले पड़े, रहै मसाना जाय ॥ 788 ॥<br /><br />ऊँचा मन्दिर मेड़िया, चला कली ढुलाय ।<br />एकहिं गुरु के नाम बिन, जदि तदि परलय जाय ॥ 789 ॥<br /><br />ऊँचा दीसे धौहरा, भागे चीती पोल ।<br />एक गुरु के नाम बिन, जम मरेंगे रोज ॥ 790 ॥<br /><br />पाव पलक तो दूर है, मो पै कहा न जाय ।<br />ना जानो क्या होयगा, पाव के चौथे भाय ॥ 791 ॥<br /><br />मौत बिसारी बाहिरा, अचरज कीया कौन ।<br />मन माटी में मिल गया, ज्यों आटा में लौन ॥ 792 ॥<br /><br />घर रखवाला बाहिरा, चिड़िया खाई खेत ।<br />आधा परवा ऊबरे, चेति सके तो चेत ॥ 793 ॥<br /><br />हाड़ जले लकड़ी जले, जले जलवान हार ।<br />अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 794 ॥<br /><br />पकी हुई खेती देखि के, गरब किया किसान ।<br />अजहुँ झोला बहुत है, घर आवै तब जान ॥ 795 ॥<br /><br />पाँच तत्व का पूतरा, मानुष धरिया नाम ।<br />दिना चार के कारने, फिर-फिर रोके ठाम ॥ 796 ॥<br /><br />कहा चुनावै मेड़िया, लम्बी भीत उसारि ।<br />घर तो साढ़े तीन हाथ, घना तो पौने चारि ॥ 797 ॥<br /><br />यह तन काँचा कुंभ है, लिया फिरै थे साथ ।<br />टपका लागा फुटि गया, कछु न आया हाथ ॥ 798 ॥<br /><br />कहा किया हम आपके, कहा करेंगे जाय ।<br />इत के भये न ऊत के, चाले मूल गँवाय ॥ 799 ॥<br /><br />जनमै मरन विचार के, कूरे काम निवारि ।<br />जिन पंथा तोहि चालना, सोई पंथ सँवारि ॥ 800 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-35290574853879133992009-12-30T08:43:00.002-08:002009-12-30T08:44:17.641-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ ७निबैंरी निहकामता, स्वामी सेती नेह ।<br />विषया सो न्यारा रहे, साधुन का मत येह ॥ 601 ॥<br /><br />मानपमान न चित धरै, औरन को सनमान ।<br />जो कोर्ठ आशा करै, उपदेशै तेहि ज्ञान ॥ 602 ॥<br /><br />और देव नहिं चित्त बसै, मन गुरु चरण बसाय ।<br />स्वल्पाहार भोजन करूँ, तृष्णा दूर पराय ॥ 603 ॥<br /><br />जौन चाल संसार की जौ साधु को नाहिं ।<br />डिंभ चाल करनी करे, साधु कहो मत ताहिं ॥ 604 ॥<br /><br />इन्द्रिय मन निग्रह करन, हिरदा कोमल होय ।<br />सदा शुद्ध आचरण में, रह विचार में सोय ॥ 605 ॥<br /><br />शीलवन्त दृढ़ ज्ञान मत, अति उदार चित होय ।<br />लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ॥ 606 ॥<br /><br />कोई आवै भाव ले, कोई अभाव लै आव ।<br />साधु दोऊ को पोषते, भाव न गिनै अभाव ॥ 607 ॥<br /><br />सन्त न छाड़ै सन्तता, कोटिक मिलै असंत ।<br />मलय भुवंगय बेधिया, शीतलता न तजन्त ॥ 608 ॥<br /><br />कमल पत्र हैं साधु जन, बसैं जगत के माहिं ।<br />बालक केरि धाय ज्यों, अपना जानत नाहिं ॥ 609 ॥<br /><br />बहता पानी निरमला, बन्दा गन्दा होय ।<br />साधू जन रमा भला, दाग न लागै कोय ॥ 610 ॥<br /><br />बँधा पानी निरमला, जो टूक गहिरा होय ।<br />साधु जन बैठा भला, जो कुछ साधन होय ॥ 611 ॥<br /><br />एक छाड़ि पय को गहैं, ज्यों रे गऊ का बच्छ ।<br />अवगुण छाड़ै गुण गहै, ऐसा साधु लच्छ ॥ 612 ॥<br /><br />जौन भाव उपर रहै, भितर बसावै सोय ।<br />भीतर और न बसावई, ऊपर और न होय ॥ 613 ॥<br /><br />उड़गण और सुधाकरा, बसत नीर के संग ।<br />यों साधू संसार में, कबीर फड़त न फंद ॥ 614 ॥<br /><br />तन में शीतल शब्द है, बोले वचन रसाल ।<br />कहैं कबीर ता साधु को, गंजि सकै न काल ॥ 615 ॥<br /><br />तूटै बरत आकाश सौं, कौन सकत है झेल ।<br />साधु सती और सूर का, अनी ऊपर का खेल ॥ 616 ॥<br /><br />ढोल दमामा गड़झड़ी, सहनाई और तूर ।<br />तीनों निकसि न बाहुरैं, साधु सती औ सूर ॥ 617 ॥<br /><br />आज काल के लोग हैं, मिलि कै बिछुरी जाहिं ।<br />लाहा कारण आपने, सौगन्ध राम कि खाहिं ॥ 618 ॥<br /><br />जुवा चोरी मुखबिरी, ब्याज बिरानी नारि ।<br />जो चाहै दीदार को, इतनी वस्तु निवारि ॥ 619 ॥<br /><br />कबीर मेरा कोइ नहीं, हम काहू के नाहिं ।<br />पारै पहुँची नाव ज्यों, मिलि कै बिछुरी जाहिं ॥ 620 ॥<br /><br />सन्त समागम परम सुख, जान अल्प सुख और ।<br />मान सरोवर हंस है, बगुला ठौरे ठौर ॥ 621 ॥<br /><br />सन्त मिले सुख ऊपजै दुष्ट मिले दुख होय ।<br />सेवा कीजै साधु की, जन्म कृतारथ होय ॥ 622 ॥<br /><br />संगत कीजै साधु की कभी न निष्फल होय ।<br />लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ॥ 623 ॥<br /><br />मान नहीं अपमान नहीं, ऐसे शीतल सन्त ।<br />भव सागर से पार हैं, तोरे जम के दन्त ॥ 624 ॥<br /><br />दया गरीबी बन्दगी, समता शील सुभाव ।<br />येते लक्षण साधु के, कहैं कबीर सतभाव ॥ 625 ॥<br /><br />सो दिन गया इकारथे, संगत भई न सन्त ।<br />ज्ञान बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भटकन्त ॥ 626 ॥<br /><br />आशा तजि माया तजै, मोह तजै अरू मान ।<br />हरष शोक निन्दा तजै, कहैं कबीर सन्त जान ॥ 627 ॥<br /><br />आसन तो इकान्त करैं, कामिनी संगत दूर ।<br />शीतल सन्त शिरोमनी, उनका ऐसा नूर ॥ 628 ॥<br /><br />यह कलियुग आयो अबै, साधु न जाने कोय ।<br />कामी क्रोधी मस्खरा, तिनकी पूजा होय ॥ 629 ॥<br /><br />कुलवन्ता कोटिक मिले, पण्डित कोटि पचीस ।<br />सुपच भक्त की पनहि में, तुलै न काहू शीश ॥ 630 ॥<br /><br />साधु दरशन महाफल, कोटि यज्ञ फल लेह ।<br />इक मन्दिर को का पड़ी, नगर शुद्ध करिलेह ॥ 631 ॥<br /><br />साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।<br />डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥ 632 ॥<br /><br />सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।<br />जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥ 633 ॥<br /><br />आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।<br />जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥ 634 ॥<br /><br />साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।<br />बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥ 635 ॥<br /><br />सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।<br />कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥ 636 ॥<br /><br />हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।<br />कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥ 637 ॥<br /><br />साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।<br />विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥ 638 ॥<br /><br />सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।<br />ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥ 639 ॥<br /><br />॥ भेष के विषय मे दोहे ॥<br /><br />चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।<br />ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥ 640 ॥<br /><br />बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।<br />बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 641 ॥<br /><br />साधु भया तो क्या भया, माला पहिरी चार ।<br />बाहर भेष बनाइया, भीतर भरी भंगार ॥ 642 ॥<br /><br />तन को जोगी सब करै, मन को करै न कोय ।<br />सहजै सब सिधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 643 ॥<br /><br />जौ मानुष गृह धर्म युत, राखै शील विचार ।<br />गुरुमुख बानी साधु संग, मन वच, सेवा सार ॥ 644 ॥<br /><br />शब्द विचारे पथ चलै, ज्ञान गली दे पाँव ।<br />क्या रमता क्या बैठता, क्या गृह कंदला छाँव ॥ 645 ॥<br /><br />गिरही सुवै साधु को, भाव भक्ति आनन्द ।<br />कहैं कबीर बैरागी को, निरबानी निरदुन्द ॥ 646 ॥<br /><br />पाँच सात सुमता भरी, गुरु सेवा चित लाय ।<br />तब गुरु आज्ञा लेय के, रहे देशान्तर जाय ॥ 647 ॥<br /><br />गुरु के सनमुख जो रहै, सहै कसौटी दुख ।<br />कहैं कबीर तो दुख पर वारों, कोटिक सूख ॥ 648 ॥<br /><br />मन मैला तन ऊजरा, बगुला कपटी अंग ।<br />तासों तो कौवा भला, तन मन एकहि रंग ॥ 649 ॥<br /><br />भेष देख मत भूलिये, बूझि लीजिये ज्ञान ।<br />बिना कसौटी होत नहीं, कंचन की पहिचान ॥ 650 ॥<br /><br />कवि तो कोटि-कोटि हैं, सिर के मुड़े कोट ।<br />मन के कूड़े देखि करि, ता संग लीजै ओट ॥ 651 ॥<br /><br />बोली ठोली मस्खरी, हँसी खेल हराम ।<br />मद माया और इस्तरी, नहिं सन्तन के काम ॥ 652 ॥<br /><br />फाली फूली गाडरी, ओढ़ि सिंह की खाल ।<br />साँच सिंह जब आ मिले, गाडर कौन हवाल ॥ 653 ॥<br /><br />बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।<br />दोऊ चूकि खाली पड़े, ताको वार न पार ॥ 654 ॥<br /><br />धारा तो दोनों भली, बिरही के बैराग ।<br />गिरही दासातन करे बैरागी अनुराग ॥ 655 ॥<br /><br />घर में रहै तो भक्ति करूँ, ना तरू करू बैराग ।<br />बैरागी बन्ध करै, ताका बड़ा अभाग ॥ 656 ॥<br /><br />॥ भीख के विषय मे दोहे ॥<br /><br /><br />उदर समाता माँगि ले, ताको नाहिं दोष ।<br />कहैं कबीर अधिका गहै, ताकि गति न मोष ॥ 657 ॥<br /><br />अजहूँ तेरा सब मिटैं, जो मानै गुरु सीख ।<br />जब लग तू घर में रहै, मति कहुँ माँगे भीख ॥ 658 ॥<br /><br />माँगन गै सो भर रहै, भरे जु माँगन जाहिं ।<br />तिनते पहिले वे मरे, होत करत है नाहिं ॥ 659 ॥<br /><br />माँगन-मरण समान है, तोहि दई मैं सीख ।<br />कहैं कबीर समझाय के, मति कोई माँगे भीख ॥ 660 ॥<br /><br />उदर समाता अन्न ले, तनहिं समाता चीर ।<br />अधिकहिं संग्रह ना करै, तिसका नाम फकीर ॥ 661 ॥<br /><br />आब गया आदर गया, नैनन गया सनेह ।<br />यह तीनों तब ही गये, जबहिं कहा कुछ देह ॥ 662 ॥<br /><br />सहत मिलै सो दूध है, माँगि मिलै सा पानि ।<br />कहैं कबीर वह रक्त है, जामें एंचातानि ॥ 663 ॥<br /><br />अनमाँगा उत्तम कहा, मध्यम माँगि जो लेय ।<br />कहैं कबीर निकृष्टि सो, पर धर धरना देय ॥ 664 ॥<br /><br />अनमाँगा तो अति भला, माँगि लिया नहिं दोष ।<br />उदर समाता माँगि ले, निश्च्य पावै योष ॥ 665 ॥<br /><br />॥ संगति पर दोहे ॥<br /><br /><br />कबीरा संगत साधु की, नित प्रति कीर्ज जाय ।<br />दुरमति दूर बहावसी, देशी सुमति बताय ॥ 666 ॥<br /><br />एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध ।<br />कबीर संगत साधु की, करै कोटि अपराध ॥ 667 ॥<br /><br />कबिरा संगति साधु की, जो करि जाने कोय ।<br />सकल बिरछ चन्दन भये, बांस न चन्दन होय ॥ 668 ॥<br /><br />मन दिया कहुँ और ही, तन साधुन के संग ।<br />कहैं कबीर कोरी गजी, कैसे लागै रंग ॥ 669 ॥<br /><br />साधुन के सतसंग से, थर-थर काँपे देह ।<br />कबहुँ भाव कुभाव ते, जनि मिटि जाय सनेह ॥ 670 ॥<br /><br />साखी शब्द बहुतै सुना, मिटा न मन का दाग ।<br />संगति सो सुधरा नहीं, ताका बड़ा अभाग ॥ 671 ॥<br /><br />साध संग अन्तर पड़े, यह मति कबहु न होय ।<br />कहैं कबीर तिहु लोक में, सुखी न देखा कोय ॥ 672 ॥<br /><br />गिरिये परबत सिखर ते, परिये धरिन मंझार ।<br />मूरख मित्र न कीजिये, बूड़ो काली धार ॥ 673 ॥<br /><br />संत कबीर गुरु के देश में, बसि जावै जो कोय ।<br />कागा ते हंसा बनै, जाति बरन कुछ खोय ॥ 674 ॥<br /><br />भुवंगम बास न बेधई, चन्दन दोष न लाय ।<br />सब अंग तो विष सों भरा, अमृत कहाँ समाय ॥ 675 ॥<br /><br />तोहि पीर जो प्रेम की, पाका सेती खेल ।<br />काची सरसों पेरिकै, खरी भया न तेल ॥ 676 ॥<br /><br />काचा सेती मति मिलै, पाका सेती बान ।<br />काचा सेती मिलत ही, है तन धन की हान ॥ 677 ॥<br /><br />कोयला भी हो ऊजला, जरि बरि है जो सेव ।<br />मूरख होय न ऊजला, ज्यों कालर का खेत ॥ 678 ॥<br /><br />मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठि का जाय ।<br />कोयला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय ॥ 679 ॥<br /><br />ज्ञानी को ज्ञानी मिलै, रस की लूटम लूट ।<br />ज्ञानी को आनी मिलै, हौवै माथा कूट ॥ 680॥<br /><br />साखी शब्द बहुतक सुना, मिटा न मन क मोह ।<br />पारस तक पहुँचा नहीं, रहा लोह का लोह ॥ 681 ॥<br /><br />ब्राह्मण केरी बेटिया, मांस शराब न खाय ।<br />संगति भई कलाल की, मद बिना रहा न जाए ॥ 682 ॥<br /><br />जीवन जीवन रात मद, अविचल रहै न कोय ।<br />जु दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ॥ 683 ॥<br /><br />दाग जु लागा नील का, सौ मन साबुन धोय ।<br />कोटि जतन परमोधिये, कागा हंस न होय ॥ 684 ॥<br /><br />जो छोड़े तो आँधरा, खाये तो मरि जाय ।<br />ऐसे संग छछून्दरी, दोऊ भाँति पछिताय ॥ 685 ॥<br /><br />प्रीति कर सुख लेने को, सो सुख गया हिराय ।<br />जैसे पाइ छछून्दरी, पकड़ि साँप पछिताय ॥ 686 ॥<br /><br />कबीर विषधर बहु मिले, मणिधर मिला न कोय ।<br />विषधर को मणिधर मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 687 ॥<br /><br />सज्जन सों सज्जन मिले, होवे दो दो बात ।<br />गहदा सो गहदा मिले, खावे दो दो लात ॥ 688 ॥<br /><br />तरुवर जड़ से काटिया, जबै सम्हारो जहाज ।<br />तारै पर बोरे नहीं, बाँह गहे की लाज ॥ 689 ॥<br /><br />मैं सोचों हित जानिके, कठिन भयो है काठ ।<br />ओछी संगत नीच की सरि पर पाड़ी बाट ॥ 690 ॥<br /><br />लकड़ी जल डूबै नहीं, कहो कहाँ की प्रीति ।<br />अपनी सीची जानि के, यही बड़ने की रीति ॥ 691 ॥<br /><br />साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।<br />कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥ 692 ॥<br /><br />संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।<br />लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥ 693 ॥<br /><br />तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।<br />संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥ 694 ॥<br /><br />साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।<br />ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥ 695 ॥<br /><br />संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।<br />साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥ 696 ॥<br /><br />चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।<br />ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥ 697 ॥<br /><br />सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।<br />मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥ 698 ॥<br /><br /><br />॥ सेवक पर दोहे ॥<br /><br /><br />सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।<br />जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥ 699 ॥<br /><br />तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।<br />जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥ 700 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-27484140902322329042009-12-30T08:43:00.001-08:002009-12-30T08:43:32.823-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ ६जाका गुरु है गीरही, गिरही चेला होय ।<br />कीच-कीच के धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ 501 ॥<br /><br />गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।<br />हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥ 502 ॥<br /><br />यह तन विषय की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।<br />सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 503 ॥<br /><br />बँधे को बँधा मिला, छूटै कौन उपाय ।<br />कर सेवा निरबन्ध की पल में लेय छुड़ाय ॥ 504 ॥<br /><br />गुरु बिचारा क्या करै, शब्द न लागै अंग ।<br />कहैं कबीर मैक्ली गजी, कैसे लागू रंग ॥ 505 ॥<br /><br />गुरु बिचारा क्या करे, ह्रदय भया कठोर ।<br />नौ नेजा पानी चढ़ा पथर न भीजी कोर ॥ 506 ॥<br /><br />कहता हूँ कहि जात हूँ, देता हूँ हेला ।<br />गुरु की करनी गुरु जाने चेला की चेला ॥ 507 ॥<br /><br />॥ गुरु शिष्य के विषय मे दोहे ॥<br /><br /><br />शिष्य पुजै आपना, गुरु पूजै सब साध ।<br />कहैं कबीर गुरु शीष को, मत है अगम अगाध ॥ 508 ॥<br /><br />हिरदे ज्ञान न उपजै, मन परतीत न होय ।<br />ताके सद्गुरु कहा करें, घनघसि कुल्हरन होय ॥ 509 ॥<br /><br />ऐसा कोई न मिला, जासू कहूँ निसंक ।<br />जासो हिरदा की कहूँ, सो फिर मारे डंक ॥ 510 ॥<br /><br />शिष किरपिन गुरु स्वारथी, किले योग यह आय ।<br />कीच-कीच के दाग को, कैसे सके छुड़ाय ॥ 511 ॥<br /><br />स्वामी सेवक होय के, मनही में मिलि जाय ।<br />चतुराई रीझै नहीं, रहिये मन के माय ॥ 512 ॥<br /><br />गुरु कीजिए जानि के, पानी पीजै छानि ।<br />बिना विचारे गुरु करे, परे चौरासी खानि ॥ 513 ॥<br /><br />सत को खोजत मैं फिरूँ, सतिया न मिलै न कोय ।<br />जब सत को सतिया मिले, विष तजि अमृत होय ॥ 514 ॥<br /><br />देश-देशान्तर मैं फिरूँ, मानुष बड़ा सुकाल ।<br />जा देखै सुख उपजै, वाका पड़ा दुकाल ॥ 515 ॥<br /><br />॥ भिक्ति के विषय मे दोहे ॥<br /><br /><br />कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा ससभ होय ।<br />माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय ॥ 516 ॥<br /><br />कबीर गुरु की भक्ति बिन, नारी कूकरी होय ।<br />गली-गली भूँकत फिरै, टूक न डारै कोय ॥ 517 ॥<br /><br />जो कामिनि परदै रहे, सुनै न गुरुगुण बात ।<br />सो तो होगी कूकरी, फिरै उघारे गात ॥ 518 ॥<br /><br />चौंसठ दीवा जोय के, चौदह चन्दा माहिं ।<br />तेहि घर किसका चाँदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं ॥ 519 ॥<br /><br />हरिया जाने रूखाड़ा, उस पानी का नेह ।<br />सूखा काठ न जानिहै, कितहूँ बूड़ा गेह ॥ 520 ॥<br /><br />झिरमिर झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर मेह ।<br />माटी गलि पानी भई, पाहन वाही नेह ॥ 521 ॥<br /><br />कबीर ह्रदय कठोर के, शब्द न लागे सार ।<br />सुधि-सुधि के हिरदे विधे, उपजै ज्ञान विचार ॥ 522 ॥<br /><br />कबीर चन्दर के भिरै, नीम भी चन्दन होय ।<br />बूड़यो बाँस बड़ाइया, यों जनि बूड़ो कोय ॥ 523 ॥<br /><br />पशुआ सों पालो परो, रहू-रहू हिया न खीज ।<br />ऊसर बीज न उगसी, बोवै दूना बीज ॥ 524 ॥<br /><br />कंचन मेरू अरपही, अरपैं कनक भण्डार ।<br />कहैं कबीर गुरु बेमुखी, कबहूँ न पावै पार ॥ 525 ॥<br /><br />साकट का मुख बिम्ब है निकसत बचन भुवंग ।<br />ताकि औषण मौन है, विष नहिं व्यापै अंग ॥ 526 ॥<br /><br />शुकदेव सरीखा फेरिया, तो को पावे पार ।<br />बिनु गुरु निगुरा जो रहे, पड़े चौरासी धार ॥ 527 ॥<br /><br />कबीर लहरि समुन्द्र की, मोती बिखरे आय ।<br />बगुला परख न जानई, हंस चुनि-चुनि खाय ॥ 528 ॥<br /><br />साकट कहा न कहि चलै, सुनहा कहा न खाय ।<br />जो कौवा मठ हगि भरै, तो मठ को कहा नशाय ॥ 529 ॥<br /><br />साकट मन का जेवरा, भजै सो करराय ।<br />दो अच्छर गुरु बहिरा, बाधा जमपुर जाय ॥ 530 ॥<br /><br />कबीर साकट की सभा, तू मति बैठे जाय ।<br />एक गुवाड़े कदि बड़ै, रोज गदहरा गाय ॥ 531 ॥<br /><br />संगत सोई बिगुर्चई, जो है साकट साथ ।<br />कंचन कटोरा छाड़ि के, सनहक लीन्ही हाथ ॥ 532 ॥<br /><br />साकट संग न बैठिये करन कुबेर समान ।<br />ताके संग न चलिये, पड़ि हैं नरक निदान ॥ 533 ॥<br /><br />टेक न कीजै बावरे, टेक माहि है हानि ।<br />टेक छाड़ि मानिक मिलै, सत गुरु वचन प्रमानि ॥ 534 ॥<br /><br />साकट सूकर कीकरा, तीनों की गति एक है ।<br />कोटि जतन परमोघिये, तऊ न छाड़े टेक ॥ 535 ॥<br /><br />निगुरा ब्राह्म्ण नहिं भला, गुरुमुख भला चमार ।<br />देवतन से कुत्ता भला, नित उठि भूँके द्वार ॥ 536 ॥<br /><br />हरिजन आवत देखिके, मोहड़ो सूखि गयो ।<br />भाव भक्ति समझयो नहीं, मूरख चूकि गयो ॥ 537 ॥<br /><br />खसम कहावै बैरनव, घर में साकट जोय ।<br />एक धरा में दो मता, भक्ति कहाँ ते होय ॥ 538 ॥<br /><br />घर में साकट स्त्री, आप कहावे दास ।<br />वो तो होगी शूकरी, वो रखवाला पास ॥ 539 ॥<br /><br />आँखों देखा घी भला, न मुख मेला तेल ।<br />साघु सो झगड़ा भला, ना साकट सों मेल ॥ 540 ॥<br /><br />कबीर दर्शन साधु का, बड़े भाग दरशाय ।<br />जो होवै सूली सजा, काँटे ई टरि जाय ॥ 541 ॥<br /><br />कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय ।<br />अंक भरे भारि भेटिये, पाप शरीर जाय ॥ 542 ॥<br /><br />कबीर दर्शन साधु के, करत न कीजै कानि ।<br />ज्यों उद्य्म से लक्ष्मी, आलस मन से हानि ॥ 543 ॥<br /><br />कई बार नाहिं कर सके, दोय बखत करिलेय ।<br />कबीर साधु दरश ते, काल दगा नहिं देय ॥ 544 ॥<br /><br />दूजे दिन नहिं करि सके, तीजे दिन करू जाय ।<br />कबीर साधु दरश ते मोक्ष मुक्ति फन पाय ॥ 545 ॥<br /><br />तीजे चौथे नहिं करे, बार-बार करू जाय ।<br />यामें विलंब न कीजिये, कहैं कबीर समुझाय ॥ 546 ॥<br /><br />दोय बखत नहिं करि सके, दिन में करूँ इक बार ।<br />कबीर साधु दरश ते, उतरैं भव जल पार ॥ 547 ॥<br /><br />बार-बार नहिं करि सके, पाख-पाख करिलेय ।<br />कहैं कबीरन सो भक्त जन, जन्म सुफल करि लेय ॥ 548 ॥<br /><br />पाख-पाख नहिं करि सकै, मास मास करू जाय ।<br />यामें देर न लाइये, कहैं कबीर समुदाय ॥ 549 ॥<br /><br />बरस-बरस नाहिं करि सकै ताको लागे दोष ।<br />कहै कबीर वा जीव सो, कबहु न पावै योष ॥ 550 ॥<br /><br />छठे मास नहिं करि सके, बरस दिना करि लेय ।<br />कहैं कबीर सो भक्तजन, जमहिं चुनौती देय ॥ 551 ॥<br /><br />मास-मास नहिं करि सकै, उठे मास अलबत्त ।<br />यामें ढील न कीजिये, कहै कबीर अविगत्त ॥ 552 ॥<br /><br />मात-पिता सुत इस्तरी आलस्य बन्धू कानि ।<br />साधु दरश को जब चलैं, ये अटकावै आनि ॥ 553 ॥<br /><br />साधु चलत रो दीजिये, कीजै अति सनमान ।<br />कहैं कबीर कछु भेट धरूँ, अपने बित्त अनुमान ॥ 554 ॥<br /><br />इन अटकाया न रुके, साधु दरश को जाय ।<br />कहै कबीर सोई सन्तजन, मोक्ष मुक्ति फल पाय ॥ 555 ॥<br /><br />खाली साधु न बिदा करूँ, सुन लीजै सब कोय ।<br />कहै कबीर कछु भेंट धरूँ, जो तेरे घर होय ॥ 556 ॥<br /><br />सुनिये पार जो पाइया, छाजन भोजन आनि ।<br />कहै कबीर संतन को, देत न कीजै कानि ॥ 557 ॥<br /><br />कबीर दरशन साधु के, खाली हाथ न जाय ।<br />यही सीख बुध लीजिए, कहै कबीर बुझाय ॥ 558 ॥<br /><br />टूका माही टूक दे, चीर माहि सो चीर ।<br />साधु देत न सकुचिये, यों कशि कहहिं कबीर ॥ 559 ॥<br /><br />कबीर लौंग-इलायची, दातुन, माटी पानि ।<br />कहै कबीर सन्तन को, देत न कीजै कानि ॥ 560 ॥<br /><br />साधु आवत देखिकर, हँसी हमारी देह ।<br />माथा का ग्रह उतरा, नैनन बढ़ा सनेह ॥ 561 ॥<br /><br />साधु शब्द समुद्र है, जामें रत्न भराय ।<br />मन्द भाग मट्टी भरे, कंकर हाथ लगाय ॥ 562 ॥<br /><br />साधु आया पाहुना, माँगे चार रतन ।<br />धूनी पानी साथरा, सरधा सेती अन्न ॥ 563 ॥<br /><br />साधु आवत देखिके, मन में करै भरोर ।<br />सो तो होसी चूह्रा, बसै गाँव की ओर ॥ 564 ॥<br /><br />साधु मिलै यह सब हलै, काल जाल जम चोट ।<br />शीश नवावत ढ़हि परै, अघ पावन को पोट ॥ 565 ॥<br /><br />साधु बिरछ सतज्ञान फल, शीतल शब्द विचार ।<br />जग में होते साधु नहिं, जर भरता संसार ॥ 566 ॥<br /><br />साधु बड़े परमारथी, शीतल जिनके अंग ।<br />तपन बुझावै ओर की, देदे अपनो रंग ॥ 567 ॥<br /><br />आवत साधु न हरखिया, जात न दीया रोय ।<br />कहै कबीर वा दास की, मुक्ति कहाँ से होय ॥ 568 ॥<br /><br />छाजन भोजन प्रीति सो, दीजै साधु बुलाय ।<br />जीवन जस है जगन में, अन्त परम पद पाय ॥ 569 ॥<br /><br />सरवर तरवर सन्त जन, चौथा बरसे मेह ।<br />परमारथ के कारने, चारों धारी देह ॥ 570 ॥<br /><br />बिरछा कबहुँ न फल भखै, नदी न अंचय नीर ।<br />परमारथ के कारने, साधु धरा शरीर ॥ 571 ॥<br /><br />सुख देवै दुख को हरे, दूर करे अपराध ।<br />कहै कबीर वह कब मिले, परम सनेही साध ॥ 572 ॥<br /><br />साधुन की झुपड़ी भली, न साकट के गाँव ।<br />चंदन की कुटकी भली, ना बूबल बनराव ॥ 573 ॥<br /><br />कह अकाश को फेर है, कह धरती को तोल ।<br />कहा साध की जाति है, कह पारस का मोल ॥ 574 ॥<br /><br />हयबर गयबर सधन धन, छत्रपति की नारि ।<br />तासु पटतरा न तुले, हरिजन की परिहारिन ॥ 575 ॥<br /><br />क्यों नृपनारि निन्दिये, पनिहारी को मान ।<br />वह माँग सँवारे पीववहित, नित वह सुमिरे राम ॥ 576 ॥<br /><br />जा सुख को मुनिवर रटैं, सुर नर करैं विलाप ।<br />जो सुख सहजै पाईया, सन्तों संगति आप ॥ 577 ॥<br /><br />साधु सिद्ध बहु अन्तरा, साधु मता परचण्ड ।<br />सिद्ध जु वारे आपको, साधु तारि नौ खण्ड ॥ 578 ॥<br /><br />कबीर शीतल जल नहीं, हिम न शीतल होय ।<br />कबीर शीतल सन्त जन, राम सनेही सोय ॥ 579 ॥<br /><br />आशा वासा सन्त का, ब्रह्मा लखै न वेद ।<br />षट दर्शन खटपट करै, बिरला पावै भेद ॥ 580 ॥<br /><br />कोटि-कोटि तीरथ करै, कोटि कोटि करु धाय ।<br />जब लग साधु न सेवई, तब लग काचा काम ॥ 581 ॥<br /><br />वेद थके, ब्रह्मा थके, याके सेस महेस ।<br />गीता हूँ कि गत नहीं, सन्त किया परवेस ॥ 582 ॥<br /><br />सन्त मिले जानि बीछुरों, बिछुरों यह मम प्रान ।<br />शब्द सनेही ना मिले, प्राण देह में आन ॥ 583 ॥<br /><br />साधु ऐसा चाहिए, दुखै दुखावै नाहिं ।<br />पान फूल छेड़े नहीं, बसै बगीचा माहिं ॥ 584 ॥<br /><br />साधु कहावन कठिन है, ज्यों खांड़े की धार ।<br />डगमगाय तो गिर पड़े निहचल उतरे पार ॥ 585 ॥<br /><br />साधु कहावत कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर ।<br />चढ़े तो चाखै प्रेम रस, गिरै तो चकनाचूर ॥ 586 ॥<br /><br />साधु चाल जु चालई, साधु की चाल ।<br />बिन साधन तो सुधि नाहिं साधु कहाँ ते होय ॥ 587 ॥<br /><br />साधु सोई जानिये, चलै साधु की चाल ।<br />परमारथ राता रहै, बोलै बचन रसाल ॥ 588 ॥<br /><br />साधु भौरा जग कली, निशि दिन फिरै उदास ।<br />टुक-टुक तहाँ विलम्बिया, जहँ शीतल शब्द निवास ॥ 589 ॥<br /><br />साधू जन सब में रमैं, दुख न काहू देहि ।<br />अपने मत गाड़ा रहै, साधुन का मत येहि ॥ 590 ॥<br /><br />साधु सती और सूरमा, राखा रहै न ओट ।<br />माथा बाँधि पताक सों, नेजा घालैं चोट ॥ 591<br /><br />साधु-साधु सब एक है, जस अफीम का खेत ।<br />कोई विवेकी लाल है, और सेत का सेत ॥ 592 ॥<br /><br />साधु सती औ सिं को, ज्यों लेघन त्यौं शोभ ।<br />सिंह न मारे मेढ़का, साधु न बाँघै लोभ ॥ 593 ॥<br /><br />साधु तो हीरा भया, न फूटै धन खाय ।<br />न वह बिनभ कुम्भ ज्यों ना वह आवै जाय ॥ 594 ॥<br /><br />साधू-साधू सबहीं बड़े, अपनी-अपनी ठौर ।<br />शब्द विवेकी पारखी, ते माथे के मौर ॥ 595 ॥<br /><br />सदा रहे सन्तोष में, धरम आप दृढ़ धार ।<br />आश एक गुरुदेव की, और चित्त विचार ॥ 596 ॥<br /><br />दुख-सुख एक समान है, हरष शोक नहिं व्याप ।<br />उपकारी निहकामता, उपजै छोह न ताप ॥ 597 ॥<br /><br />सदा कृपालु दु:ख परिहरन, बैर भाव नहिं दोय ।<br />छिमा ज्ञान सत भाखही, सिंह रहित तु होय ॥ 598 ॥<br /><br />साधु ऐसा चाहिए, जाके ज्ञान विवेक ।<br />बाहर मिलते सों मिलें, अन्तर सबसों एक ॥ 599 ॥<br /><br />सावधान और शीलता, सदा प्रफुल्लित गात ।<br />निर्विकार गम्भीर मत, धीरज दया बसात ॥ 600 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-90034183897475594122009-12-30T08:42:00.001-08:002009-12-30T08:42:55.410-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ ५अब तौ जूझया ही बरगै, मुडि चल्यां घर दूर ।<br />सिर साहिबा कौ सौंपता, सोंच न कीजै सूर ॥ 401 ॥<br /><br />कबीर घोड़ा प्रेम का, चेतनि चाढ़ि असवार ।<br />ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥ 402 ॥<br /><br />कबीर हरि सब कूँ भजै, हरि कूँ भजै न कोइ ।<br />जब लग आस सरीर की, तब लग दास न होइ ॥ 403 ॥<br /><br />सिर साटें हरि सेवेये, छांड़ि जीव की बाणि ।<br />जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥ 404 ॥<br /><br />जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ ।<br />धड़ सूली सिर कंगुरै, तऊ न बिसारौ तुझ ॥ 405 ॥<br /><br />आपा भेटियाँ हरि मिलै, हरि मेट् या सब जाइ ।<br />अकथ कहाणी प्रेम की, कह्या न कोउ पत्याइ ॥ 406 ॥<br /><br />जीवन थैं मरिबो भलौ, जो मरि जानैं कोइ ।<br />मरनैं पहली जे मरै, जो कलि अजरावर होइ ॥ 407 ॥<br /><br />कबीर मन मृतक भया, दुर्बल भया सरीर ।<br />तब पैंडे लागा हरि फिरै, कहत कबीर कबीर ॥ 408 ॥<br /><br />रोड़ा है रहो बाट का, तजि पाषंड अभिमान ।<br />ऐसा जे जन है रहै, ताहि मिलै भगवान ॥ 409 ॥<br /><br />कबीर चेरा संत का, दासनि का परदास ।<br />कबीर ऐसैं होइ रक्षा, ज्यूँ पाऊँ तलि घास ॥ 410 ॥<br /><br />अबरन कों का बरनिये, भोपै लख्या न जाइ ।<br />अपना बाना वाहिया, कहि-कहि थाके भाइ ॥ 411 ॥<br /><br />जिसहि न कोई विसहि तू, जिस तू तिस सब कोई ।<br />दरिगह तेरी सांइयाँ, जा मरूम कोइ होइ ॥ 412 ॥<br /><br />साँई मेरा वाणियां, सहति करै व्यौपार ।<br />बिन डांडी बिन पालड़ै तौले सब संसार ॥ 413 ॥<br /><br />झल बावै झल दाहिनै, झलहि माहि त्योहार ।<br />आगै-पीछै झलमाई, राखै सिरजनहार ॥ 414 ॥<br /><br />एसी बाणी बोलिये, मन का आपा खोइ ।<br />औरन को सीतल करै, आपौ सीतल होइ ॥ 415 ॥<br /><br />कबीर हरि कग नाव सूँ प्रीति रहै इकवार ।<br />तौ मुख तैं मोती झड़ै हीरे अन्त न पार ॥ 416 ॥<br /><br />बैरागी बिरकत भला, गिरही चित्त उदार ।<br />दुहुँ चूका रीता पड़ै वाकूँ वार न पार ॥ 417 ॥<br /><br />कोई एक राखै सावधां, चेतनि पहरै जागि ।<br />बस्तर बासन सूँ खिसै, चोर न सकई लागि ॥ 418 ॥<br /><br />बारी-बारी आपणीं, चले पियारे म्यंत ।<br />तेरी बारी रे जिया, नेड़ी आवै निंत ॥ 419 ॥<br /><br />पदारथ पेलि करि, कंकर लीया हाथि ।<br />जोड़ी बिछटी हंस की, पड़या बगां के साथि ॥ 420 ॥<br /><br />निंदक नियारे राखिये, आंगन कुटि छबाय ।<br />बिन पाणी बिन सबुना, निरमल करै सुभाय ॥ 421 ॥<br /><br />गोत्यंद के गुण बहुत हैं, लिखै जु हिरदै मांहि ।<br />डरता पाणी जा पीऊं, मति वै धोये जाहि ॥ 422 ॥<br /><br />जो ऊग्या सो आंथवै, फूल्या सो कुमिलाइ ।<br />जो चिणियां सो ढहि पड़ै, जो आया सो जाइ ॥ 423 ॥<br /><br />सीतलता तब जाणियें, समिता रहै समाइ ।<br />पष छाँड़ै निरपष रहै, सबद न देष्या जाइ ॥ 424 ॥<br /><br />खूंदन तौ धरती सहै, बाढ़ सहै बनराइ ।<br />कुसबद तौ हरिजन सहै, दूजै सह्या न जाइ ॥ 425 ॥<br /><br />नीर पियावत क्या फिरै, सायर घर-घर बारि ।<br />जो त्रिषावन्त होइगा, सो पीवेगा झखमारि ॥ 426 ॥<br /><br />कबीर सिरजन हार बिन, मेरा हित न कोइ ।<br />गुण औगुण बिहणै नहीं, स्वारथ बँधी लोइ ॥ 427 ॥<br /><br />हीरा परा बजार में, रहा छार लपिटाइ ।<br />ब तक मूरख चलि गये पारखि लिया उठाइ ॥ 428 ॥<br /><br />सुरति करौ मेरे साइयां, हम हैं भोजन माहिं ।<br />आपे ही बहि जाहिंगे, जौ नहिं पकरौ बाहिं ॥ 429 ॥<br /><br />क्या मुख लै बिनती करौं, लाज आवत है मोहि ।<br />तुम देखत ओगुन करौं, कैसे भावों तोहि ॥ 430 ॥<br /><br />सब काहू का लीजिये, साचां सबद निहार ।<br />पच्छपात ना कीजिये कहै कबीर विचार ॥ 431 ॥<br /><br />॥ गुरु के विषय में दोहे ॥<br /><br />गुरु सों ज्ञान जु लीजिये सीस दीजिए दान ।<br />बहुतक भोदूँ बहि गये, राखि जीव अभिमान ॥ 432 ॥<br /><br />गुरु को कीजै दण्डव कोटि-कोटि परनाम ।<br />कीट न जाने भृगं को, गुरु करले आप समान ॥ 433 ॥<br /><br />कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय ।<br />जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोय ॥ 434 ॥<br /><br />गुरु पारस को अन्तरो, जानत है सब सन्त ।<br />वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महन्त ॥ 435 ॥<br /><br />गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय ।<br />कहैं कबीर सो सन्त हैं, आवागमन नशाय ॥ 436 ॥<br /><br /><br />जो गुरु बसै बनारसी, सीष समुन्दर तीर ।<br />एक पलक बिसरे नहीं, जो गुण होय शरीर ॥ 437 ॥<br /><br />गुरु समान दाता नहीं, याचक सीष समान ।<br />तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ॥ 438 ॥<br /><br />गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट ।<br />अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ॥ 439 ॥<br /><br />गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।<br />कहैं कबीर ता दास को, तीन लोक भय नहिं ॥ 440 ॥<br /><br />लच्छ कोष जो गुरु बसै, दीजै सुरति पठाय ।<br />शब्द तुरी बसवार है, छिन आवै छिन जाय ॥ 441 ॥<br /><br />गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर ।<br />आठ पहर निरखता रहे, गुरु मूरति की ओर ॥ 442 ॥<br /><br />गुरु सों प्रीति निबाहिये, जेहि तत निबटै सन्त ।<br />प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कन्त ॥ 443 ॥<br /><br />गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष ।<br />गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटे न दोष ॥ 444 ॥<br /><br />गुरु मूरति आगे खड़ी, दुनिया भेद कछु नाहिं ।<br />उन्हीं कूँ परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ॥ 445 ॥<br /><br />गुरु शरणागति छाड़ि के, करै भरौसा और ।<br />सुख सम्पति की कह चली, नहीं परक ये ठौर ॥ 446 ॥<br /><br />सिष खांडा गुरु भसकला, चढ़ै शब्द खरसान ।<br />शब्द सहै सम्मुख रहै, निपजै शीष सुजान ॥ 447 ॥<br /><br />ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास ।<br />गुरु सेवा ते पाइये, सद्गुरु चरण निवास ॥ 448 ॥<br /><br />अहं अग्नि निशि दिन जरै, गुरु सो चाहे मान ।<br />ताको जम न्योता दिया, होउ हमार मेहमान ॥ 449 ॥<br /><br />जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय ।<br />कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय ॥ 450 ॥<br /><br />मूल ध्यान गुरु रूप है, मूल पूजा गुरु पाँव ।<br />मूल नाम गुरु वचन है, मूल सत्य सतभाव ॥ 451 ॥<br /><br />पंडित पाढ़ि गुनि पचि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान ।<br />ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परनाम ॥ 452 ॥<br /><br />सोइ-सोइ नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम ।<br />कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कतहुँ कुशल नहि क्षेम ॥ 453 ॥<br /><br />कहैं कबीर जजि भरम को, नन्हा है कर पीव ।<br />तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ॥ 454 ॥<br /><br />कोटिन चन्दा उगही, सूरज कोटि हज़ार ।<br />तीमिर तौ नाशै नहीं, बिन गुरु घोर अंधार ॥ 455 ॥<br /><br />तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत ।<br />ते रहियें गुरु सनमुखाँ कबहूँ न दीजै पीठ ॥ 456 ॥<br /><br />तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्रान ।<br />कहैं कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहूँ कुशल नहिं क्षेम ॥ 457 ॥<br /><br />जो गुरु पूरा होय तो, शीषहि लेय निबाहि ।<br />शीष भाव सुत्त जानिये, सुत ते श्रेष्ठ शिष आहि ॥ 458 ॥<br /><br />भौ सागर की त्रास तेक, गुरु की पकड़ो बाँहि ।<br />गुरु बिन कौन उबारसी, भौ जल धारा माँहि ॥ 459 ॥<br /><br />करै दूरि अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदेय ।<br />बलिहारी वे गुरुन की हंस उबारि जुलेय ॥ 460 ॥<br /><br />सुनिये सन्तों साधु मिलि, कहहिं कबीर बुझाय ।<br />जेहि विधि गुरु सों प्रीति छै कीजै सोई उपाय ॥ 461 ॥<br /><br />अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहि करै प्रतिपाल ।<br />अपनी और निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ॥ 462 ॥<br /><br />लौ लागी विष भागिया, कालख डारी धोय ।<br />कहैं कबीर गुरु साबुन सों, कोई इक ऊजल होय ॥ 463 ॥<br /><br />राजा की चोरी करे, रहै रंग की ओट ।<br />कहैं कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ॥ 464 ॥<br /><br />साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय ।<br />जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥ 465 ॥<br /><br />॥ सतगुरु के विषय मे दोहे ॥<br /><br /><br />सत्गुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय ।<br />धन्य शीष धन भाग तिहि जो ऐसी सुधि पाय ॥ 466 ॥<br /><br />सतगुरु शरण न आवहीं, फिर फिर होय अकाज ।<br />जीव खोय सब जायेंगे काल तिहूँ पुर राज ॥ 467 ॥<br /><br />सतगुरु सम कोई नहीं सात दीप नौ खण्ड ।<br />तीन लोक न पाइये, अरु इक्कीस ब्रह्म्ण्ड ॥ 468 ॥<br /><br />सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय ।<br />भ्रम का भांड तोड़ि करि, रहै निराला होय ॥ 469 ॥<br /><br />सतगुरु मिले जु सब मिले, न तो मिला न कोय ।<br />माता-पिता सुत बाँधवा ये तो घर घर होय ॥ 470 ॥<br /><br />जेहि खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव ।<br />कहै कबीर सुन साधवा, करु सतगुरु की सेव ॥ 471 ॥<br /><br />मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर ।<br />अब देवे को क्या रहा, यों कयि कहहिं कबीर ॥ 472 ॥<br /><br />सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय ।<br />कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥ 473 ॥<br /><br />जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान ।<br />तामें निपट अनूप है, सतगुरु लागा कान ॥ 474 ॥<br /><br />कबीर समूझा कहत है, पानी थाह बताय ।<br />ताकूँ सतगुरु का करे, जो औघट डूबे जाय ॥ 475 ॥<br /><br />बिन सतगुरु उपदेश, सुर नर मुनि नहिं निस्तरे ।<br />ब्रह्मा-विष्णु, महेश और सकल जिव को गिनै ॥ 476 ॥<br /><br />केते पढ़ि गुनि पचि भुए, योग यज्ञ तप लाय ।<br />बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ॥ 477 ॥<br /><br />डूबा औघट न तरै, मोहिं अंदेशा होय ।<br />लोभ नदी की धार में, कहा पड़ो नर सोइ ॥ 478 ॥<br /><br />सतगुरु खोजो सन्त, जोव काज को चाहहु ।<br />मेटो भव को अंक, आवा गवन निवारहु ॥ 479 ॥<br /><br />करहु छोड़ कुल लाज, जो सतगुरु उपदेश है ।<br />होये सब जिव काज, निश्चय करि परतीत करू ॥ 480 ॥<br /><br />यह सतगुरु उपदेश है, जो मन माने परतीत ।<br />करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जल जीत ॥ 481 ॥<br /><br />जग सब सागर मोहिं, कहु कैसे बूड़त तेरे ।<br />गहु सतगुरु की बाहिं जो जल थल रक्षा करै ॥ 482 ॥<br /><br /><br />॥ गुरु पारख पर दोहे ॥<br /><br />जानीता बूझा नहीं बूझि किया नहीं गौन ।<br />अन्धे को अन्धा मिला, राह बतावे कौन ॥ 483 ॥<br /><br />जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरन्ध ।<br />अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ॥ 484 ॥<br /><br />गुरु लोभ शिष लालची, दोनों खेले दाँव ।<br />दोनों बूड़े बापुरे, चढ़ि पाथर की नाँव ॥ 485 ॥<br /><br />आगे अंधा कूप में, दूजे लिया बुलाय ।<br />दोनों बूडछे बापुरे, निकसे कौन उपाय ॥ 486 ॥<br /><br />गुरु किया है देह का, सतगुरु चीन्हा नाहिं ।<br />भवसागर के जाल में, फिर फिर गोता खाहि ॥ 487 ॥<br /><br />पूरा सतगुरु न मिला, सुनी अधूरी सीख ।<br />स्वाँग यती का पहिनि के, घर घर माँगी भीख ॥ 488 ॥<br /><br />कबीर गुरु है घाट का, हाँटू बैठा चेल ।<br />मूड़ मुड़ाया साँझ कूँ गुरु सबेरे ठेल ॥ 489 ॥<br /><br />गुरु-गुरु में भेद है, गुरु-गुरु में भाव ।<br />सोइ गुरु नित बन्दिये, शब्द बतावे दाव ॥ 490 ॥<br /><br />जो गुरु ते भ्रम न मिटे, भ्रान्ति न जिसका जाय ।<br />सो गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय ॥ 491 ॥<br /><br />झूठे गुरु के पक्ष की, तजत न कीजै वार ।<br />द्वार न पावै शब्द का, भटके बारम्बार ॥ 492 ॥<br /><br />सद्गुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं ।<br />दरिया सो न्यारा रहे, दीसे दरिया माहि ॥ 493 ॥<br /><br />कबीर बेड़ा सार का, ऊपर लादा सार ।<br />पापी का पापी गुरु, यो बूढ़ा संसार ॥ 494 ॥<br /><br />जो गुरु को तो गम नहीं, पाहन दिया बताय ।<br />शिष शोधे बिन सेइया, पार न पहुँचा जाए ॥ 495 ॥<br /><br />सोचे गुरु के पक्ष में, मन को दे ठहराय ।<br />चंचल से निश्चल भया, नहिं आवै नहीं जाय ॥ 496 ॥<br /><br />गु अँधियारी जानिये, रु कहिये परकाश ।<br />मिटि अज्ञाने ज्ञान दे, गुरु नाम है तास ॥ 497 ॥<br /><br />गुरु नाम है गम्य का, शीष सीख ले सोय ।<br />बिनु पद बिनु मरजाद नर, गुरु शीष नहिं कोय ॥ 498 ॥<br /><br />गुरुवा तो घर फिरे, दीक्षा हमारी लेह ।<br />कै बूड़ौ कै ऊबरो, टका परदानी देह ॥ 499 ॥<br /><br />गुरुवा तो सस्ता भया, कौड़ी अर्थ पचास ।<br />अपने तन की सुधि नहीं, शिष्य करन की आस ॥ 500 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-84842266804038259952009-12-30T08:41:00.001-08:002009-12-30T08:41:58.459-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ ४सबै रसाइण मैं क्रिया, हरि सा और न कोई ।<br />तिल इक घर मैं संचरे, तौ सब तन कंचन होई ॥ 301 ॥<br /><br />हरि-रस पीया जाणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार ।<br />मैमता घूमत रहै, नाहि तन की सार ॥ 302 ॥<br /><br />कबीर हरि-रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि ।<br />पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़ई चाकि ॥ 303 ॥<br /><br />कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आई ।<br />सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाई ॥ 304 ॥<br /><br />त्रिक्षणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ ।<br />जवासा के रुष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ ॥ 305 ॥<br /><br />कबीर सो घन संचिये, जो आगे कू होइ ।<br />सीस चढ़ाये गाठ की जात न देख्या कोइ ॥ 306 ॥<br /><br />कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड़ ।<br />सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड़ ॥ 307 ॥<br /><br />कबीर माया पापरगी, फंध ले बैठी हाटि ।<br />सब जग तौ फंधै पड्या, गया कबीर काटि ॥ 308 ॥<br /><br />कबीर जग की जो कहै, भौ जलि बूड़ै दास ।<br />पारब्रह्म पति छांड़ि करि, करै मानि की आस ॥ 309 ॥<br /><br />बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़या कलंक ।<br />और पखेरू पी गये, हंस न बौवे चंच ॥ 310 ॥<br /><br />कबीर इस संसार का, झूठा माया मोह ।<br />जिहि धारि जिता बाधावणा, तिहीं तिता अंदोह ॥ 311 ॥<br /><br />माया तजी तौ क्या भया, मानि तजि नही जाइ ।<br />मानि बड़े मुनियर मिले, मानि सबनि को खाइ ॥ 312 ॥<br /><br />करता दीसै कीरतन, ऊँचा करि करि तुंड ।<br />जाने-बूझै कुछ नहीं, यौं ही अंधा रुंड ॥ 313 ॥<br /><br />कबीर पढ़ियो दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ ।<br />बावन आषिर सोधि करि, ररै मर्मे चित्त लाइ ॥ 314 ॥<br /><br />मैं जाण्यूँ पाढ़िबो भलो, पाढ़िबा थे भलो जोग ।<br />राम-नाम सूं प्रीती करि, भल भल नींयो लोग ॥ 315 ॥<br /><br />पद गाएं मन हरषियां, साषी कह्मां अनंद ।<br />सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥ 316 ॥<br /><br />जैसी मुख तै नीकसै, तैसी चाले चाल ।<br />पार ब्रह्म नेड़ा रहै, पल में करै निहाल ॥ 317 ॥<br /><br />काजी-मुल्ला भ्रमियां, चल्या युनीं कै साथ ।<br />दिल थे दीन बिसारियां, करद लई जब हाथ ॥ 318 ॥<br /><br />प्रेम-प्रिति का चालना, पहिरि कबीरा नाच ।<br />तन-मन तापर वारहुँ, जो कोइ बौलौ सांच ॥ 319 ॥<br /><br />सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप ।<br />जाके हिरदै में सांच है, ताके हिरदै हरि आप ॥ 320 ॥<br /><br />खूब खांड है खीचड़ी, माहि ष्डयाँ टुक कून ।<br />देख पराई चूपड़ी, जी ललचावे कौन ॥ 321 ॥<br /><br />साईं सेती चोरियाँ, चोरा सेती गुझ ।<br />जाणैंगा रे जीवएगा, मार पड़ैगी तुझ ॥ 322 ॥<br /><br />तीरथ तो सब बेलड़ी, सब जग मेल्या छाय ।<br />कबीर मूल निकंदिया, कौण हलाहल खाय ॥ 323 ॥<br /><br />जप-तप दीसैं थोथरा, तीरथ व्रत बेसास ।<br />सूवै सैंबल सेविया, यौ जग चल्या निरास ॥ 324 ॥<br /><br />जेती देखौ आत्म, तेता सालिगराम ।<br />राधू प्रतषि देव है, नहीं पाथ सूँ काम ॥ 325 ॥<br /><br />कबीर दुनिया देहुरै, सीत नवांवरग जाइ ।<br />हिरदा भीतर हरि बसै, तू ताहि सौ ल्यो लाइ ॥ 326 ॥<br /><br />मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाणि ।<br />दसवां द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछिरिग ॥ 327 ॥<br /><br />मेरे संगी दोइ जरग, एक वैष्णौ एक राम ।<br />वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम ॥ 328 ॥<br /><br />मथुरा जाउ भावे द्वारिका, भावै जाउ जगनाथ ।<br />साथ-संगति हरि-भागति बिन-कछु न आवै हाथ ॥ 329 ॥<br /><br />कबीर संगति साधु की, बेगि करीजै जाइ ।<br />दुर्मति दूरि बंबाइसी, देसी सुमति बताइ ॥ 330 ॥<br /><br />उज्जवल देखि न धीजिये, वग ज्यूं माडै ध्यान ।<br />धीर बौठि चपेटसी, यूँ ले बूडै ग्यान ॥ 331 ॥<br /><br />जेता मीठा बोलरगा, तेता साधन जारिग ।<br />पहली था दिखाइ करि, उडै देसी आरिग ॥ 332 ॥<br /><br />जानि बूझि सांचहिं तर्जे, करै झूठ सूँ नेहु ।<br />ताकि संगति राम जी, सुपिने ही पिनि देहु ॥ 333 ॥<br /><br />कबीर तास मिलाइ, जास हियाली तू बसै ।<br />नहिंतर बेगि उठाइ, नित का गंजर को सहै ॥ 334 ॥<br /><br />कबीरा बन-बन मे फिरा, कारणि आपणै राम ।<br />राम सरीखे जन मिले, तिन सारे सवेरे काम ॥ 335 ॥<br /><br />कबीर मन पंषो भया, जहाँ मन वहाँ उड़ि जाय ।<br />जो जैसी संगति करै, सो तैसे फल खाइ ॥ 336 ॥<br /><br />कबीरा खाई कोट कि, पानी पिवै न कोई ।<br />जाइ मिलै जब गंग से, तब गंगोदक होइ ॥ 337 ॥<br /><br />माषी गुड़ मैं गड़ि रही, पंख रही लपटाई ।<br />ताली पीटै सिरि घुनै, मीठै बोई माइ ॥ 338 ॥<br /><br />मूरख संग न कीजिये, लोहा जलि न तिराइ ।<br />कदली-सीप-भुजगं मुख, एक बूंद तिहँ भाइ ॥ 339 ॥<br /><br />हरिजन सेती रुसणा, संसारी सूँ हेत ।<br />ते णर कदे न नीपजौ, ज्यूँ कालर का खेत ॥ 340 ॥<br /><br />काजल केरी कोठड़ी, तैसी यहु संसार ।<br />बलिहारी ता दास की, पैसिर निकसण हार ॥ 341 ॥<br /><br />पाणी हीतै पातला, धुवाँ ही तै झीण ।<br />पवनां बेगि उतावला, सो दोस्त कबीर कीन्ह ॥ 342 ॥<br /><br />आसा का ईंधण करूँ, मनसा करूँ बिभूति ।<br />जोगी फेरी फिल करूँ, यौं बिनना वो सूति ॥ 343 ॥<br /><br />कबीर मारू मन कूँ, टूक-टूक है जाइ ।<br />विव की क्यारी बोइ करि, लुणत कहा पछिताइ ॥ 353 ॥<br /><br />कागद केरी नाव री, पाणी केरी गंग ।<br />कहै कबीर कैसे तिरूँ, पंच कुसंगी संग ॥ 354 ॥<br /><br />मैं मन्ता मन मारि रे, घट ही माहैं घेरि ।<br />जबहीं चालै पीठि दे, अंकुस दै-दै फेरि ॥ 355 ॥<br /><br />मनह मनोरथ छाँड़िये, तेरा किया न होइ ।<br />पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥ 356 ॥<br /><br />एक दिन ऐसा होएगा, सब सूँ पड़े बिछोइ ।<br />राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होइ ॥ 357 ॥<br /><br />कबीर नौबत आपणी, दिन-दस लेहू बजाइ ।<br />ए पुर पाटन, ए गली, बहुरि न देखै आइ ॥ 358 ॥<br /><br />जिनके नौबति बाजती, भैंगल बंधते बारि ।<br />एकै हरि के नाव बिन, गए जनम सब हारि ॥ 359 ॥<br /><br />कहा कियौ हम आइ करि, कहा कहैंगे जाइ ।<br />इत के भये न उत के, चलित भूल गँवाइ ॥ 360 ॥<br /><br />बिन रखवाले बाहिरा, चिड़िया खाया खेत ।<br />आधा-परधा ऊबरै, चेति सकै तो चैति ॥ 361 ॥<br /><br />कबीर कहा गरबियौ, काल कहै कर केस ।<br />ना जाणै कहाँ मारिसी, कै धरि के परदेस ॥ 362 ॥<br /><br />नान्हा कातौ चित्त दे, महँगे मोल बिलाइ ।<br />गाहक राजा राम है, और न नेडा आइ ॥ 363 ॥<br /><br />उजला कपड़ा पहिरि करि, पान सुपारी खाहिं ।<br />एकै हरि के नाव बिन, बाँधे जमपुरि जाहिं ॥ 364 ॥<br /><br />कबीर केवल राम की, तू जिनि छाँड़ै ओट ।<br />घण-अहरनि बिचि लौह ज्यूँ, घणी सहै सिर चोट ॥ 365 ॥<br /><br />मैं-मैं बड़ी बलाइ है सकै तो निकसौ भाजि ।<br />कब लग राखौ हे सखी, रुई लपेटी आगि ॥ 366 ॥<br /><br />कबीर माला मन की, और संसारी भेष ।<br />माला पहरयां हरि मिलै, तौ अरहट कै गलि देखि ॥ 367 ॥<br /><br />माला पहिरै मनभुषी, ताथै कछू न होइ ।<br />मन माला को फैरता, जग उजियारा सोइ ॥ 368 ॥<br /><br />कैसो कहा बिगाड़िया, जो मुंडै सौ बार ।<br />मन को काहे न मूंडिये, जामे विषम-विकार ॥ 369 ॥<br /><br />माला पहरयां कुछ नहीं, भगति न आई हाथ ।<br />माथौ मूँछ मुंडाइ करि, चल्या जगत् के साथ ॥ 370 ॥<br /><br />बैसनो भया तौ क्या भया, बूझा नहीं बबेक ।<br />छापा तिलक बनाइ करि, दगहया अनेक ॥ 371 ॥<br /><br />स्वाँग पहरि सो रहा भया, खाया-पीया खूंदि ।<br />जिहि तेरी साधु नीकले, सो तो मेल्ही मूंदि ॥ 372 ॥<br /><br />चतुराई हरि ना मिलै, ए बातां की बात ।<br />एक निस प्रेही निरधार का गाहक गोपीनाथ ॥ 373 ॥<br /><br />एष ले बूढ़ी पृथमी, झूठे कुल की लार ।<br />अलष बिसारयो भेष में, बूड़े काली धार ॥ 374 ॥<br /><br />कबीर हरि का भावता, झीणां पंजर ।<br />रैणि न आवै नींदड़ी, अंगि न चढ़ई मांस ॥ 375 ॥<br /><br />सिंहों के लेहँड नहीं, हंसों की नहीं पाँत ।<br />लालों की नहि बोरियाँ, साध न चलै जमात ॥ 376 ॥<br /><br />गाँठी दाम न बांधई, नहिं नारी सों नेह ।<br />कह कबीर ता साध की, हम चरनन की खेह ॥ 377 ॥<br /><br />निरबैरी निहकामता, साईं सेती नेह ।<br />विषिया सूं न्यारा रहै, संतनि का अंग सह ॥ 378 ॥<br /><br />जिहिं हिरदै हरि आइया, सो क्यूं छाना होइ ।<br />जतन-जतन करि दाबिये, तऊ उजाला सोइ ॥ 379 ॥<br /><br />काम मिलावे राम कूं, जे कोई जाणै राखि ।<br />कबीर बिचारा क्या कहै, जाकि सुख्देव बोले साख ॥ 380 ॥<br /><br />राम वियोगी तन बिकल, ताहि न चीन्हे कोई ।<br />तंबोली के पान ज्यूं, दिन-दिन पीला होई ॥ 381 ॥<br /><br />पावक रूपी राम है, घटि-घटि रह्या समाइ ।<br />चित चकमक लागै नहीं, ताथै घूवाँ है-है जाइ ॥ 382 ॥<br /><br />फाटै दीदै में फिरौं, नजिर न आवै कोई ।<br />जिहि घटि मेरा साँइयाँ, सो क्यूं छाना होई ॥ 383 ॥<br /><br />हैवर गैवर सघन धन, छत्रपती की नारि ।<br />तास पटेतर ना तुलै, हरिजन की पनिहारि ॥ 384 ॥<br /><br />जिहिं धरि साध न पूजि, हरि की सेवा नाहिं ।<br />ते घर भड़धट सारषे, भूत बसै तिन माहिं ॥ 385 ॥<br /><br />कबीर कुल तौ सोभला, जिहि कुल उपजै दास ।<br />जिहिं कुल दास न उपजै, सो कुल आक-पलास ॥ 386 ॥<br /><br />क्यूं नृप-नारी नींदिये, क्यूं पनिहारी कौ मान ।<br />वा माँग सँवारे पील कौ, या नित उठि सुमिरैराम ॥ 387 ॥<br /><br />काबा फिर कासी भया, राम भया रे रहीम ।<br />मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम ॥ 388 ॥<br /><br />दुखिया भूखा दुख कौं, सुखिया सुख कौं झूरि ।<br />सदा अजंदी राम के, जिनि सुख-दुख गेल्हे दूरि ॥ 389 ॥<br /><br />कबीर दुबिधा दूरि करि, एक अंग है लागि ।<br />यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि ॥ 390 ॥<br /><br />कबीर का तू चिंतवै, का तेरा च्यंत्या होइ ।<br />अण्च्यंत्या हरिजी करै, जो तोहि च्यंत न होइ ॥ 391 ॥<br /><br />भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग ।<br />भांडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग ॥ 392 ॥<br /><br />रचनाहार कूं चीन्हि लै, खैबे कूं कहा रोइ ।<br />दिल मंदि मैं पैसि करि, ताणि पछेवड़ा सोइ ॥ 393 ॥<br /><br />कबीर सब जग हंडिया, मांदल कंधि चढ़ाइ ।<br />हरि बिन अपना कोउ नहीं, देखे ठोकि बनाइ ॥ 394 ॥<br /><br />मांगण मरण समान है, बिरता बंचै कोई ।<br />कहै कबीर रघुनाथ सूं, मति रे मंगावे मोहि ॥ 395 ॥<br /><br />मानि महतम प्रेम-रस गरवातण गुण नेह ।<br />ए सबहीं अहला गया, जबही कह्या कुछ देह ॥ 396 ॥<br /><br />संत न बांधै गाठड़ी, पेट समाता-तेइ ।<br />साईं सूं सनमुख रहै, जहाँ माँगे तहां देइ ॥ 397 ॥<br /><br />कबीर संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।<br />काम-क्रोध सूं झूझणा, चौडै मांड्या खेत ॥ 398 ॥<br /><br />कबीर सोई सूरिमा, मन सूँ मांडै झूझ ।<br />पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥ 399 ॥<br /><br />जिस मरनै यैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।<br />कब मरिहूँ कब देखिहूँ पूरन परमानंद ॥ 400 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-66057470515375579352009-12-30T08:40:00.000-08:002009-12-30T08:41:09.071-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ ३ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।<br />प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥ 201 ॥<br /><br />तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।<br />माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥ 202 ॥<br /><br />तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।<br />सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥ 203 ॥<br /><br />तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।<br />तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥ 204 ॥<br /><br />दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।<br />तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 205 ॥<br /><br />दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।<br />रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥ 206 ॥<br /><br />धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।<br />माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 207 ॥<br /><br />न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।<br />मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥ 208 ॥<br /><br />पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।<br />एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ 209 ॥<br /><br />पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।<br />ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥ 210 ॥<br /><br />पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।<br />देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥ 211 ॥<br /><br />पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।<br />याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ 212 ॥<br /><br />पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।<br />अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥ 213 ॥<br /><br />प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।<br />चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ 214 ॥<br /><br />बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।<br />कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय ॥ 215 ॥<br /><br />बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।<br />समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥ 216 ॥<br /><br />बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।<br />कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 217 ॥<br /><br />बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।<br />अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥ 218 ॥<br /><br />बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।<br />पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥ 219 ॥<br /><br />मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।<br />बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥ 220 ॥<br /><br />माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।<br />जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥ 221 ॥<br /><br />भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।<br />कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥ 222 ॥<br /><br />माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।<br />भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥ 223 ॥<br /><br />मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।<br />साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ 224 ॥<br /><br />माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।<br />फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥ 225 ॥<br /><br />मैं रोऊँ सब जगत् को, मोको रोवे न कोय ।<br />मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 226 ॥<br /><br />ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नाहिं ।<br />सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठें घर माहिं ॥ 227 ॥<br /><br />या दुनियाँ में आ कर, छाँड़ि देय तू ऐंठ ।<br />लेना हो सो लेइले, उठी जात है पैंठ ॥ 228 ॥<br /><br />राम नाम चीन्हा नहीं, कीना पिंजर बास ।<br />नैन न आवे नीदरौं, अलग न आवे भास ॥ 229 ॥<br /><br />रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।<br />हीरा जन्म अनमोल था, कौंड़ी बदले जाए ॥ 230 ॥<br /><br />राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय ।<br />जो सुख साधु सगं में, सो बैकुंठ न होय ॥ 231 ॥<br /><br />संगति सों सुख्या ऊपजे, कुसंगति सो दुख होय ।<br />कह कबीर तहँ जाइये, साधु संग जहँ होय ॥ 232 ॥<br /><br />साहिब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय ।<br />ज्यों मेहँदी के पात में, लाली रखी न जाय ॥ 233 ॥<br /><br />साँझ पड़े दिन बीतबै, चकवी दीन्ही रोय ।<br />चल चकवा वा देश को, जहाँ रैन नहिं होय ॥ 234 ॥<br /><br />संह ही मे सत बाँटे, रोटी में ते टूक ।<br />कहे कबीर ता दास को, कबहुँ न आवे चूक ॥ 235 ॥<br /><br />साईं आगे साँच है, साईं साँच सुहाय ।<br />चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट मुण्डाय ॥ 236 ॥<br /><br />लकड़ी कहै लुहार की, तू मति जारे मोहिं ।<br />एक दिन ऐसा होयगा, मैं जारौंगी तोहि ॥ 237 ॥<br /><br />हरिया जाने रुखड़ा, जो पानी का गेह ।<br />सूखा काठ न जान ही, केतुउ बूड़ा मेह ॥ 238 ॥<br /><br />ज्ञान रतन का जतनकर माटी का संसार ।<br />आय कबीर फिर गया, फीका है संसार ॥ 239 ॥<br /><br />ॠद्धि सिद्धि माँगो नहीं, माँगो तुम पै येह ।<br />निसि दिन दरशन शाधु को, प्रभु कबीर कहुँ देह ॥ 240 ॥<br /><br />क्षमा बड़े न को उचित है, छोटे को उत्पात ।<br />कहा विष्णु का घटि गया, जो भुगु मारीलात ॥ 241 ॥<br /><br />राम-नाम कै पटं तरै, देबे कौं कुछ नाहिं ।<br />क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥ 242 ॥<br /><br />बलिहारी गुर आपणौ, घौंहाड़ी कै बार ।<br />जिनि भानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥ 243 ॥<br /><br />ना गुरु मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।<br />दुन्यू बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ 244 ॥<br /><br />सतगुर हम सूं रीझि करि, एक कह्मा कर संग ।<br />बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया अब अंग ॥ 245 ॥<br /><br />कबीर सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।<br />स्वाँग जती का पहरि करि, धरि-धरि माँगे भीष ॥ 246 ॥<br /><br />यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।<br />सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान ॥ 247 ॥<br /><br />तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ ।<br />वारी फेरी बलि गई, जित देखौं तित तू ॥ 248 ॥<br /><br />राम पियारा छांड़ि करि, करै आन का जाप ।<br />बेस्या केरा पूतं ज्यूं, कहै कौन सू बाप ॥ 249 ॥<br /><br />कबीरा प्रेम न चषिया, चषि न लिया साव ।<br />सूने घर का पांहुणां, ज्यूं आया त्यूं जाव ॥ 250 ॥<br /><br />कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ ।<br />फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ ॥ 251 ॥<br /><br />लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार ।<br />कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार ॥ 252 ॥<br /><br />बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र न लागै कोइ ।<br />राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ ॥ 253 ॥<br /><br />यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं ।<br />लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं ॥ 254 ॥<br /><br />अंदेसड़ा न भाजिसी, सदैसो कहियां ।<br />के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां ॥ 255 ॥<br /><br />इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं ।<br />लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं ॥ 256 ॥<br /><br />अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि ।<br />जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि ॥ 257 ॥<br /><br />सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त ।<br />और न कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त ॥ 258 ॥<br /><br />जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ ।<br />मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ ॥ 259 ॥<br /><br />कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त ।<br />बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व ॥ 260 ॥<br /><br />सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे ।<br />दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे ॥ 261 ॥<br /><br />परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ ।<br />सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ ॥ 262 ॥<br /><br />पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ ।<br />लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ ॥ 263 ॥<br /><br />हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान ।<br />काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान ॥ 264 ॥<br /><br />जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ ।<br />धन मैली पिव ऊजला, लागि न सकौं पाइ ॥ 265 ॥<br /><br />पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई ।<br />आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई ॥ 266 ॥<br /><br />दीठा है तो कस कहूं, कह्मा न को पतियाइ ।<br />हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ ॥ 267 ॥<br /><br />भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ ।<br />मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं न दीठ ॥ 268 ॥<br /><br />कबीर एक न जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ ।<br />एक तै सब होत है, सब तैं एक न होइ ॥ 269 ॥<br /><br />कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।<br />नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ ॥ 270 ॥<br /><br />कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाउं ।<br />गले राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाउं ॥ 271 ॥<br /><br />कबीर कलिजुग आइ करि, कीये बहुत जो भीत ।<br />जिन दिल बांध्या एक सूं, ते सुख सोवै निचींत ॥ 272 ॥<br /><br />जब लग भगहित सकामता, सब लग निर्फल सेव ।<br />कहै कबीर वै क्यूँ मिलै निह्कामी निज देव ॥ 273 ॥<br /><br />पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत ।<br />सब सखियन में यों दिपै, ज्यों रवि ससि को जोत ॥ 274 ॥<br /><br />कामी अभी न भावई, विष ही कौं ले सोधि ।<br />कुबुध्दि न जीव की, भावै स्यंभ रहौ प्रमोथि ॥ 275 ॥<br /><br />भगति बिगाड़ी कामियां, इन्द्री केरै स्वादि ।<br />हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि ॥ 276 ॥<br /><br />परनारी का राचणौ, जिसकी लहसण की खानि ।<br />खूणैं बेसिर खाइय, परगट होइ दिवानि ॥ 277 ॥<br /><br />परनारी राता फिरैं, चोरी बिढ़िता खाहिं ।<br />दिवस चारि सरसा रहै, अति समूला जाहिं ॥ 288 ॥<br /><br />ग्यानी मूल गँवाइया, आपण भये करना ।<br />ताथैं संसारी भला, मन मैं रहै डरना ॥ 289 ॥<br /><br />कामी लज्जा ना करै, न माहें अहिलाद ।<br />नींद न माँगै साँथरा, भूख न माँगे स्वाद ॥ 290 ॥<br /><br />कलि का स्वामी लोभिया, पीतलि घरी खटाइ ।<br />राज-दुबारा यौं फिरै, ज्यँ हरिहाई गाइ ॥ 291 ॥<br /><br />स्वामी हूवा सीतका, पैलाकार पचास ।<br />राम-नाम काठें रह्मा, करै सिषां की आंस ॥ 292 ॥<br /><br />इहि उदर के कारणे, जग पाच्यो निस जाम ।<br />स्वामी-पणौ जो सिरि चढ़यो, सिर यो न एको काम ॥ 293 ॥<br /><br />ब्राह्म्ण गुरु जगत् का, साधू का गुरु नाहिं ।<br />उरझि-पुरझि करि भरि रह्मा, चारिउं बेदा मांहि ॥ 294 ॥<br /><br />कबीर कलि खोटी भई, मुनियर मिलै न कोइ ।<br />लालच लोभी मसकरा, तिनकूँ आदर होइ ॥ 295 ॥<br /><br />कलि का स्वमी लोभिया, मनसा घरी बधाई ।<br />दैंहि पईसा ब्याज़ को, लेखां करता जाई ॥ 296 ॥<br /><br />कबीर इस संसार कौ, समझाऊँ कै बार ।<br />पूँछ जो पकड़ै भेड़ की उतर या चाहे पार ॥ 297 ॥<br /><br />तीरथ करि-करि जग मुवा, डूंधै पाणी न्हाइ ।<br />रामहि राम जपतंडां, काल घसीटया जाइ ॥ 298 ॥<br /><br />चतुराई सूवै पढ़ी, सोइ पंजर मांहि ।<br />फिरि प्रमोधै आन कौं, आपण समझे नाहिं ॥ 299 ॥<br /><br />कबीर मन फूल्या फिरै, करता हूँ मैं घ्रंम ।<br />कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम ॥ 300 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-34848535724684435242009-12-30T08:39:00.000-08:002009-12-30T08:40:18.286-08:00कबीर दोहावली / पृष्ठ २तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।<br />तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर ॥ 101 ॥<br /><br />आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।<br />औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥ 102 ॥<br /><br />सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।<br />दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥ 103 ॥<br /><br />सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।<br />सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥ 104 ॥<br /><br />बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।<br />घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥ 105 ॥<br /><br />आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।<br />सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 106 ॥<br /><br />साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।<br />आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥ 107 ॥<br /><br />घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।<br />बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥ 108 ॥<br /><br />कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।<br />जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 109 ॥<br /><br />ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।<br />सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥ 110 ॥<br /><br />सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।<br />होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥ 111 ॥<br /><br />सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।<br />कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥ 112 ॥<br /><br />जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।<br />अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख ॥ 113 ॥<br /><br />सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।<br />जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥ 114 ॥<br /><br />यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।<br />बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥ 115 ॥<br /><br />जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।<br />कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥ 116 ॥<br /><br />जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।<br />यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥ 117 ॥<br /><br />जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।<br />जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥ 118 ॥<br /><br />कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।<br />बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 119 ॥<br /><br />लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।<br />जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥ 120 ॥<br /><br />एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।<br />है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥ 121 ॥<br /><br />जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।<br />मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥ 122 ॥<br /><br />साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।<br />चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥ 123 ॥<br /><br />अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।<br />हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 124 ॥<br /><br />खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।<br />आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥ 125 ॥<br /><br />लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।<br />लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥ 126 ॥<br /><br />सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।<br />लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥ 127 ॥<br /><br />भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।<br />भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥ 128 ॥<br /><br />गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।<br />कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥ 129 ॥<br /><br />प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।<br />चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥ 130 ॥<br /><br />कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।<br />भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥ 131 ॥<br /><br />साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।<br />राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ 132 ॥<br /><br />केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।<br />अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥ 133 ॥<br /><br />एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।<br />एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ 134 ॥<br /><br />साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।<br />आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 135 ॥<br /><br />हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।<br />निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥ 136 ॥<br /><br />आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।<br />जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥ 137 ॥<br /><br />आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।<br />सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥ 138 ॥<br /><br />अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।<br />चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥ 139 ॥<br /><br />अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।<br />हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥ 140 ॥<br /><br />आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।<br />और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥ 141 ॥<br /><br />आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।<br />कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥ 142 ॥<br /><br />आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।<br />नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ 143 ॥<br /><br />आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।<br />एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥ 144 ॥<br /><br />आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।<br />सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥ 145 ॥<br /><br />उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।<br />एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥ 146 ॥<br /><br />उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।<br />इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥ 147 ॥<br /><br />अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।<br />मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥ 148 ॥<br /><br />एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।<br />है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ 149 ॥<br /><br />ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।<br />औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥ 150 ॥<br /><br />कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय ।<br />खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥ 151 ॥<br /><br />एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।<br />एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ 152 ॥<br /><br />कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।<br />अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥ 153 ॥<br /><br />कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।<br />दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥ 154 ॥<br /><br />कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।<br />दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥ 155 ॥<br /><br />कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।<br />होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥ 156 ॥<br /><br />को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।<br />ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥ 157 ॥<br /><br />कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।<br />जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥ 158 ॥<br /><br />काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।<br />साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥ 159 ॥<br /><br />काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।<br />काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥ 160 ॥<br /><br />काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।<br />काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥ 161 ॥<br /><br />कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।<br />इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥ 162 ॥<br /><br />कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।<br />साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥ 163 ॥<br /><br />कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।<br />सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥ 164 ॥<br /><br />कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।<br />जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥ 165 ॥<br /><br />कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।<br />ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥ 166 ॥<br /><br />कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।<br />देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥ 167 ॥<br /><br />करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।<br />बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय ॥ 168 ॥<br /><br />कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।<br />ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥ 169 ॥<br /><br />कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।<br />एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥ 170 ॥<br /><br />कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।<br />मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥ 171 ॥<br /><br />कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।<br />जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥ 172 ॥<br /><br />कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि ।<br />विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि ॥ 173 ॥<br /><br />कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।<br />काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥ 174 ॥<br /><br />कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।<br />आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥ 175 ॥<br /><br />कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।<br />कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥ 176 ॥<br /><br />कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।<br />कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥ 177 ॥<br /><br />कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।<br />चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥ 178 ॥<br /><br />केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।<br />अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह ॥ 179 ॥<br /><br />कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।<br />वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥ 180 ॥<br /><br />कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।<br />जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥ 181 ॥<br /><br />गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।<br />कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह ॥ 182 ॥<br /><br />खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।<br />आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥ 183 ॥<br /><br />चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।<br />वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार ॥ 184 ॥<br /><br />घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।<br />दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल ॥ 185 ॥<br /><br />गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।<br />हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥ 186 ॥<br /><br />चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।<br />दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय ॥ 187 ॥<br /><br />जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।<br />राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥ 188 ॥<br /><br />जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।<br />कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव ॥ 189 ॥<br /><br />जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।<br />तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥ 190 ॥<br /><br />जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।<br />जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान ॥ 191 ॥<br /><br />ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।<br />मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥ 192 ॥<br /><br />जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।<br />पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप ॥ 193 ॥<br /><br />जहाँ आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।<br />कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग ॥ 194 ॥<br /><br />जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।<br />मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 195 ॥<br /><br />जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।<br />कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥ 196 ॥<br /><br />जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।<br />बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥ 197 ॥<br /><br />झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।<br />जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥ 198 ॥<br /><br />जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।<br />मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥ 199 ॥<br /><br />जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।<br />जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥ 200 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-1333792711178294962.post-62077258048645375862009-12-30T08:37:00.000-08:002009-12-30T08:39:08.573-08:00कबीर दोहावली/ पृष्ठ १दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय ।<br />जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥<br /><br />तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पाँव तले होय ।<br />कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥ 2 ॥<br /><br />माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।<br />कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥<br /><br />गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।<br />बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 4 ॥<br /><br />बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।<br />मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥<br /><br />कबीरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।<br />माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 6 ॥<br /><br />सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।<br />कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 7 ॥<br /><br />साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।<br />मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 8 ॥<br /><br />लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।<br />पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 9 ॥<br /><br />जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।<br />मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 10 ॥<br /><br />जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।<br />जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 11 ॥<br /><br />धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।<br />माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 12 ॥<br /><br />कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।<br />हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥<br /><br />पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।<br />एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥<br /><br />कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।<br />जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥<br /><br />शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।<br />तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥<br /><br />माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।<br />आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥<br /><br />माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।<br />एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 18 ॥<br /><br />रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।<br />हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥<br /><br />नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।<br />और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥<br /><br />जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।<br />तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥<br /><br />दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।<br />तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 22 ॥<br /><br />आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।<br />एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥<br /><br />काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।<br />पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥<br /><br />माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।<br />माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥<br /><br />जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।<br />कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥<br /><br />माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।<br />भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥<br /><br />आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।<br />सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥<br /><br />क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।<br />साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥<br /><br />गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।<br />हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥<br /><br />दुर्बल को न सताइए, जाकि मोटी हाय ।<br />बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥<br /><br />दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।<br />अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 32 ॥<br /><br />दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।<br />रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥<br /><br />ऐसी वाणी बोलेए, मन का आपा खोय ।<br />औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 34 ॥<br /><br />हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।<br />बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 35 ॥<br /><br />कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।<br />साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥<br /><br />जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।<br />यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥<br /><br />मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।<br />मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 38 ॥<br /><br />सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।<br />यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥<br /><br />अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।<br />मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥<br /><br />बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।<br />नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 41 ॥<br /><br />अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।<br />चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥<br /><br />कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।<br />ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 43 ॥<br /><br />पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।<br />पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥<br /><br />बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।<br />एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥<br /><br />हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।<br />हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥<br /><br />राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।<br />रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 47 ॥<br /><br />जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।<br />वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥<br /><br />तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।<br />सत्गुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 49 ॥<br /><br />सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।<br />प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 50 ॥<br /><br />समझाये समझे नहीं, पर के साथ बिकाय ।<br />मैं खींचत हूँ आपके, तू चला जमपुर जाए ॥ 51 ॥<br /><br />हंसा मोती विण्न्या, कुञ्च्न थार भराय ।<br />जो जन मार्ग न जाने, सो तिस कहा कराय ॥ 52 ॥<br /><br />कहना सो कह दिया, अब कुछ कहा न जाय ।<br />एक रहा दूजा गया, दरिया लहर समाय ॥ 53 ॥<br /><br />वस्तु है ग्राहक नहीं, वस्तु सागर अनमोल ।<br />बिना करम का मानव, फिरैं डांवाडोल ॥ 54 ॥<br /><br />कली खोटा जग आंधरा, शब्द न माने कोय ।<br />चाहे कहँ सत आइना, जो जग बैरी होय ॥ 55 ॥<br /><br />कामी, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय ।<br />भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति वरन कुल खोय ॥ 56 ॥<br /><br />जागन में सोवन करे, साधन में लौ लाय ।<br />सूरत डोर लागी रहे, तार टूट नाहिं जाय ॥ 57 ॥<br /><br />साधु ऐसा चहिए ,जैसा सूप सुभाय ।<br />सार-सार को गहि रहे, थोथ देइ उड़ाय ॥ 58 ॥<br /><br />लगी लग्न छूटे नाहिं, जीभ चोंच जरि जाय ।<br />मीठा कहा अंगार में, जाहि चकोर चबाय ॥ 59 ॥<br /><br />भक्ति गेंद चौगान की, भावे कोई ले जाय ।<br />कह कबीर कुछ भेद नाहिं, कहां रंक कहां राय ॥ 60 ॥<br /><br />घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।<br />बाल सनेही सांइयाँ, आवा अन्त का यार ॥ 61 ॥<br /><br />अन्तर्यामी एक तुम, आत्मा के आधार ।<br />जो तुम छोड़ो हाथ तो, कौन उतारे पार ॥ 62 ॥<br /><br />मैं अपराधी जन्म का, नख-सिख भरा विकार ।<br />तुम दाता दु:ख भंजना, मेरी करो सम्हार ॥ 63 ॥<br /><br />प्रेम न बड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।<br />राजा-प्रजा जोहि रुचें, शीश देई ले जाय ॥ 64 ॥<br /><br />प्रेम प्याला जो पिये, शीश दक्षिणा देय ।<br />लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय ॥ 65 ॥<br /><br />सुमिरन में मन लाइए, जैसे नाद कुरंग ।<br />कहैं कबीर बिसरे नहीं, प्रान तजे तेहि संग ॥ 66 ॥<br /><br />सुमरित सुरत जगाय कर, मुख के कछु न बोल ।<br />बाहर का पट बन्द कर, अन्दर का पट खोल ॥ 67 ॥<br /><br />छीर रूप सतनाम है, नीर रूप व्यवहार ।<br />हंस रूप कोई साधु है, सत का छाननहार ॥ 68 ॥<br /><br />ज्यों तिल मांही तेल है, ज्यों चकमक में आग ।<br />तेरा सांई तुझमें, बस जाग सके तो जाग ॥ 69 ॥<br /><br />जा करण जग ढ़ूँढ़िया, सो तो घट ही मांहि ।<br />परदा दिया भरम का, ताते सूझे नाहिं ॥ 70 ॥<br /><br />जबही नाम हिरदे घरा, भया पाप का नाश ।<br />मानो चिंगरी आग की, परी पुरानी घास ॥ 71 ॥<br /><br />नहीं शीतल है चन्द्रमा, हिंम नहीं शीतल होय ।<br />कबीरा शीतल सन्त जन, नाम सनेही सोय ॥ 72 ॥<br /><br />आहार करे मन भावता, इंदी किए स्वाद ।<br />नाक तलक पूरन भरे, तो का कहिए प्रसाद ॥ 73 ॥<br /><br />जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय ।<br />नाता तोड़े हरि भजे, भगत कहावें सोय ॥ 74 ॥<br /><br />जल ज्यों प्यारा माहरी, लोभी प्यारा दाम ।<br />माता प्यारा बारका, भगति प्यारा नाम ॥ 75 ॥<br /><br />दिल का मरहम ना मिला, जो मिला सो गर्जी ।<br />कह कबीर आसमान फटा, क्योंकर सीवे दर्जी ॥ 76 ॥<br /><br />बानी से पह्चानिये, साम चोर की घात ।<br />अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह कई बात ॥ 77 ॥<br /><br />जब लगि भगति सकाम है, तब लग निष्फल सेव ।<br />कह कबीर वह क्यों मिले, निष्कामी तज देव ॥ 78 ॥<br /><br />फूटी आँख विवेक की, लखे ना सन्त असन्त ।<br />जाके संग दस-बीस हैं, ताको नाम महन्त ॥ 79 ॥<br /><br />दाया भाव ह्र्दय नहीं, ज्ञान थके बेहद ।<br />ते नर नरक ही जायेंगे, सुनि-सुनि साखी शब्द ॥ 80 ॥<br /><br />दाया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।<br />सांई के सब जीव है, कीरी कुंजर दोय ॥ 81 ॥<br /><br />जब मैं था तब गुरु नहीं, अब गुरु हैं मैं नाय ।<br />प्रेम गली अति साँकरी, ता मे दो न समाय ॥ 82 ॥<br /><br />छिन ही चढ़े छिन ही उतरे, सो तो प्रेम न होय ।<br />अघट प्रेम पिंजरे बसे, प्रेम कहावे सोय ॥ 83 ॥<br /><br />जहाँ काम तहाँ नाम नहिं, जहाँ नाम नहिं वहाँ काम ।<br />दोनों कबहूँ नहिं मिले, रवि रजनी इक धाम ॥ 84 ॥<br /><br />कबीरा धीरज के धरे, हाथी मन भर खाय ।<br />टूट एक के कारने, स्वान घरै घर जाय ॥ 85 ॥<br /><br />ऊँचे पानी न टिके, नीचे ही ठहराय ।<br />नीचा हो सो भरिए पिए, ऊँचा प्यासा जाय ॥ 86 ॥<br /><br />सबते लघुताई भली, लघुता ते सब होय ।<br />जौसे दूज का चन्द्रमा, शीश नवे सब कोय ॥ 87 ॥<br /><br />संत ही में सत बांटई, रोटी में ते टूक ।<br />कहे कबीर ता दास को, कबहूँ न आवे चूक ॥ 88 ॥<br /><br />मार्ग चलते जो गिरा, ताकों नाहि दोष ।<br />यह कबिरा बैठा रहे, तो सिर करड़े दोष ॥ 89 ॥<br /><br />जब ही नाम ह्रदय धरयो, भयो पाप का नाश ।<br />मानो चिनगी अग्नि की, परि पुरानी घास ॥ 90 ॥<br /><br />काया काठी काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।<br />काया वैध ईश बस, मर्म न काहू पाय ॥ 91 ॥<br /><br />सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह ।<br />शब्द बिना साधु नही, द्रव्य बिना नहीं शाह ॥ 92 ॥<br /><br />बाहर क्या दिखलाए, अनन्तर जपिए राम ।<br />कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥ 93 ॥<br /><br />फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम ।<br />कहे कबीर सेवक नहीं, चहै चौगुना दाम ॥ 94 ॥<br /><br />तेरा साँई तुझमें, ज्यों पहुपन में बास ।<br />कस्तूरी का हिरन ज्यों, फिर-फिर ढ़ूँढ़त घास ॥ 95 ॥<br /><br />कथा-कीर्तन कुल विशे, भवसागर की नाव ।<br />कहत कबीरा या जगत में नाहि और उपाव ॥ 96 ॥<br /><br />कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।<br />कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा ॥ 97 ॥<br /><br />तन बोहत मन काग है, लक्ष योजन उड़ जाय ।<br />कबहु के धर्म अगम दयी, कबहुं गगन समाय ॥ 98 ॥<br /><br />जहँ गाहक ता हूँ नहीं, जहाँ मैं गाहक नाँय ।<br />मूरख यह भरमत फिरे, पकड़ शब्द की छाँय ॥ 99 ॥<br /><br />कहता तो बहुत मिला, गहता मिला न कोय ।<br />सो कहता वह जान दे, जो नहिं गहता होय ॥ 100 ॥जय श्री नाथजी महाराजhttp://www.blogger.com/profile/12581731783251850390noreply@blogger.com1