गोकुल गांव के ग्वारन
मानुष हौं तो वहीं रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बसु मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धरयौ कर छत्र पुरन्दर-धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं, मिलि कालिंदी-कूल-कदम्ब की डारन॥
यह पद रसखान के भजन संग्रह से उद्धृत है। कृष्ण भक्त रसखान कहते हैं कि यदि मनुष्य के रूप में जन्म लें तो गोकुल के ग्वाला बनकर आएं। पशु के रूप में नंद की गाय बनें। पत्थर हों तो गोवर्धन पर्वत का जिसे कृष्ण अपनी अंगुली पर उठाया और पक्षी के रूप में जन्म लें तो यमुना के किनारे उस कदम्ब की डाल पर बसेरा हो जहाँ श्रीकृष्ण ने लीला की थी।
राजतिहूं पुरकौ तजि डारौं
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुरकौ तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवो निधिकौ सुख, नन्द की गाइ चराइ बिसारौं॥
रसखानि, कबों इन आँखिनसो, ब्रजके बन-बाग तडाग निहारौं।
कोटिक हों कलधौतके धाम, करील की कुञ्जन ऊपर बारौं॥
यह पद रसखान के भजन संग्रह से उद्धृत है। रसखान कहते हैं कि बालकृष्ण की उस लकुटी काँवरिया पर तीनों लोकों का राज्य भी छोड दूं। नन्द की गाय यदि चराने को मिले तो अष्टसिद्धि व नवनिधि का सुख भी भुला दूं।
सिर सुन्दर चोटी
धूरि-भरे अति सोभित स्यामजु, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी।
खेलत-खात फिरैं अँगनाँ, पगपैजनी बाजतीं, पीरी कछोटी॥
वा छबिकों रसखानि बिलोकत, बारत कामकलानिधि-कोटी।
कागके भाग कहा कहिए, हरि-हाथसों लै गयो माखन-रोटी॥
रसखान का यह पद उनके भजन संग्रह से उद्धृत है।
जु वही मन भायौ
प्रान वही जु रहैं रिझि वा पर, रूप वही जिहिं वाहि रिझायौ।
सीस वही जिन वे परसे पद अंग वहीं जिन वा परसायौ॥
दूध वही जु दुहायो वही सों, दही सु सही जु वही ढुरकायौ।
और कहा लौं कहौं रसखान री भाव वही जु वही मन भायौ॥
रसखान का यह परम लोकप्रिय पद है। यह उनके भजन संग्रह से उद्धृत है।
छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं
सेस, महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
जाहि अनादि, अनन्त, अखण्ड, अछेद, अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद-से सुक ब्यास रटैं, पचिहारे, तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीरकी छोहरियाँ, छछियाभरि छाछपै नाच नचावैं॥
रसखान का यह पद भजन संग्रह से उद्धृत है।
Tuesday, April 27, 2010
सूरदास के पद: विनयपत्रिका
सकल सुख के कारन
भजि मन नंद नंदन चरन।
परम पंकज अति मनोहर सकल सुख के करन॥
सनक संकर ध्यान धारत निगम आगम बरन।
सेस सारद रिषय नारद संत चिंतन सरन॥
पद-पराग प्रताप दुर्लभ रमा कौ हित करन।
परसि गंगा भई पावन तिहूं पुर धन घरन॥
चित्त चिंतन करत जग अघ हरत तारन तरन।
गए तरि लै नाम केते पतित हरि-पुर धरन॥
जासु पद रज परस गौतम नारि गति उद्धरन।
जासु महिमा प्रगति केवट धोइ पग सिर धरन॥
कृष्न पद मकरंद पावन और नहिं सरबरन।
सूर भजि चरनार बिंदनि मिटै जीवन मरन॥
राग केदार में निबद्ध सूरदास जी का यह भक्तिप्रधान पद है। भगवान् का स्मरण सभी दु:खों का नाश करनेवाला है। इस पद में सूरदास कहते हैं कि अरे मन! नंदपुत्र श्रीकृष्ण (जो विष्णु के अवतार हैं) के चरण कमलों का अब तो भजन कर ले अर्थात् उनका चिंतन कर। श्रीकृष्ण के चरण कैसे हैं.. इन्हीं का वर्णन इस पद में है। उनके चरण कमल के समान व सुख प्रदान करने वाले व मन को हरने वाले हैं। उनके चरणों का ध्यान सनक, सनंदन, सनातन व सनत्कुमार तथा शिव किया करते हैं। जिनकी महिमा का वर्णन वेद-पुराणों में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त शेष, शारदा, ऋषि, नारद, संत-महात्मा भी उनके चरणों का ध्यान किया करते हैं। जिनके चरणों के पराग का प्रभाव दुर्लभ है और जो लक्ष्मी के हितकारी हैं, ऐसे विष्णु के चरण कमलों का हे मन! भजन कर। हे मन! तू प्रभु के चरणों का ध्यान कर। जिनके स्पर्श से गंगा पावन हो गई तथा जिन्होंने तीनों लोकों का घर बना दिया। अर्थात् संपन्न कर दिया। हे मन! सृष्टिगत जीवों के पापों का शमन करने वाले उन्हीं प्रभु के चरणों का तू ध्यान कर। उनके चरणों का ध्यान करके या भजन करके कितने ही पापी तर गए अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो गए। जिन प्रभु के चरणों की रज का स्पर्श पाकर गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का उद्धार हो गया तथा जिनके चरणों की महिमा को केवट ने उजागर किया और उन चरणों को धोकर अपने शीश पर धारण किया, उन्हीं श्रीकृष्ण के पवित्र चरणों के मकरंद (मधुर रस) का हे मन! तू पान कर। उससे बढकर अन्य कुछ भी नहीं है। सूरदास कहते हैं कि हे मेरे मूढ मन! तू भगवान् के उन चरणों का वंदन कर जिससे तेरे जन्म-मरण का कष्ट मिट जाए।
बृथा सु जन्म गंवैहैं
जा दिन मन पंछी उडि जैहैं।
ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥
या देही को गरब न करिये स्यार काग गिध खैहैं।
तीन नाम तन विष्ठा कृमि ह्वै नातर खाक उडैहैं॥
कहं वह नीर कहं वह सोभा कहं रंग रूप दिखैहैं।
जिन लोगन सों नेह करतु है तेई देखि घिनैहैं॥
घर के कहत सबारे काढो भूत होय घर खैहैं।
जिन पुत्रनहिं बहुत प्रीति पारेउ देवी देव मनैहैं॥
तेइ लै बांस दयौ खोपरी में सीस फाटि बिखरैहैं।
जहूं मूढ करो सतसंगति संतन में कछु पैहैं॥
नर वपु धारि नाहिं जन हरि को यम की मार सुखैहैं।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, बृथा सु जन्म गंवैहैं॥
यह संसार नश्वर है। इस मिथ्यास्वरूप जगत् में ईश्वर ही एकमात्र आधार है। इस भवसागर से वही पार कर सकता है। इन्हीं भावनाओं को सूरदासजी ने राग झिंझौटी में आबद्ध इस पद के माध्यम से किया है। वह कहते हैं - हे मानव! जिस दिन मन (आत्मा) रूपी यह पंछी उडान भरेगा उस दिन देह रूपी इस वृक्ष के सभी पत्ते टूटकर बिखर जाएंगे अर्थात् यह शरीर प्राणहीन हो जाएगा। इसलिए इस पंचभौतिक शरीर का तू गर्व न कर। इस शरीर को सियार, गिद्ध व कौवे ही खाएंगे। प्राणहीन होने पर शरीर की तीन ही गतियां होंगी अर्थात् या तो वह विष्ठा रूप हो जाता है या कीडे पड जाते हैं या फिर भस्म बनकर उड जाता है। तब स्नान करना, सजना-संवरना, रंग-रूप सभी नष्ट हो जाएगा। हे मानव! मरने के पश्चात वही लोग तुझसे घृणा करने लगेंगे जिन्हें तू अपना मानकर प्यार किया करता था। ऐसी स्थिति होने पर घर के लोग तुझे घर से निकाल बाहर करेंगे। इस पर भी उनका कथन यह होगा कि कहीं भूत बनकर यह घर को न खा जाए। जिन पुत्रों की प्राप्ति के लिए हे मानव! तूने देवी-देवताओं को मनाया और जिन पुत्रों को तूने लाड-प्यार से पाला वही पुत्र तेरी खोपडी फोडेंगे अर्थात् कपाल क्रिया करेंगे। इसलिए हे मूढ मानव! तू संतों का संग कर। ऐसा करने से तुझे कुछ ज्ञान ही प्राप्त होगा। यदि तूने मनुष्य का चोला धारण करके भी हरि भजन नहीं किया तो मरणोपरांत यम के कोडे खाएगा। सूरदास कहते हैं कि ईश्वर के भजन बिना मनुष्य का यह तन रूपी धन पाना निरर्थक ही है।
मेटि सकै नहिं कोइ
करें गोपाल के सब होइ।
जो अपनौ पुरषारथ मानै अति झूठौ है सोइ॥
साधन मंत्र जंत्र उद्यम बल ये सब डारौं धोइ।
जो कछु लिखि राख्यौ नंद नंदन मेटि सकै नहिं कोइ॥
दुख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहि मरत हौ रोइ।
सूरदास स्वामी करुनामय स्याम चरन मन पोइ॥
सूरकृत विनयपत्रिका से उद्धृत यह पद राग घनाक्षरी पर आधारित है। मनुष्य लाख जतन करे लेकिन होता वही है जो भाग्य में लिखा होता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में कहा है कि गोपाल अर्थात् भगवान् जो चाहता है वही होता है। यदि मनुष्य यह गर्व करता है कि उसने श्रम किया था, पुरुषार्थ किया था तभी उसका कार्य सफल हुआ है तो उसका ऐसा गर्व करना मिथ्या है। प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य अथक परिश्रम करता है, तब भी उसे उसका पर्याप्त फल नहीं मिलता। क्योंकि उसके भाग्य में में ऐसा लिखा ही नहीं होता। तब फल कैसे मिल सकता है? कभी-कभी इसके विपरीत स्थिति होती है। मनुष्य कुछ भी परिश्रम नहीं करता तब भी उसका अल्प पुरुषार्थ ही सिद्ध हो जाता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में समझाया है। सूरदास कहते हैं कि जितने भी तंत्र-मंत्र आदि साधन हैं, वह सब निरर्थक हैं। वे तो मात्र मन को दिलासा देने के माध्यम मात्र हैं। उनसे कुछ भी होना-जाना नहीं है, अत: भूलकर भी उनका आश्रय मत लो। सत्य तो यह है कि जो कुछ भी भाग्य में विधाता ने लिख दिया है, उसी को भोगना है। उसके लिखे को कोई भी नहीं मिटा सकता। प्राय: देखा गया है कि सृष्टि में जीवादि हानि-लाभ, सुख-दुख को लेकर व्यर्थ का प्रलाप करते रहते हैं। जबकि वह यह नहीं समझते हैं कि भाग्य में ऐसा ही लिखा था। (रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने इस बात को स्पष्ट किया है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ अर्थात् हानि, लाभ, जीवन मरण, कीर्ति-अपकीर्ति यह सब विधाता के हाथ में है। तब भी मनुष्य इसके कारण स्वयं को दुखी किए रहता है। इस पद में भी सूरदास इन्हीं बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हानि, लाभ, सुख, दुख आदि को विधाता का लेख समझकर बिसरा दो। करुणा के सागर भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा।
हम भगतनि के भगत हमारे
हम भगतनि के भगत हमारे।
सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे॥
भगतनि काज लाज हिय धरि कै पाइ पियादे धाऊं।
जहां जहां पीर परै भगतनि कौं तहां तहां जाइ छुडाऊं॥
जो भगतनि सौं बैर करत है सो निज बैरी मेरौ।
देखि बिचारि भगत हित कारन हौं हांकों रथ तेरौ॥
जीते जीतौं भगत अपने के हारें हारि बिचारौ।
सूरदास सुनि भगत विरोधी चक्र सूदरसन जारौं॥
राग घनाक्षरी में आबद्ध इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने भक्ति की महिमा का बखान किया है। भक्तों के वश में भगवान् होते हैं। यह बात इस पद में बडे ही सहज ढंग से कही गई है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए भक्त की महिमा को प्रतिपादित कर रहे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! सुनो! मैं भक्तों का हूं और भक्त मेरे हैं अर्थात् मेरे और भक्तों के मध्य किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है जो टालने पर भी टल नहीं सकती। यदि मेरे भक्त का कोई कार्य बिगडने वाला होता है तो मैं नंगे पैरों दौडकर भी भक्त के उस कार्य को संवारता हूं। इसमें मुझे मेरी ही लाज का विचार रहता है। (यह सत्य भी है क्योंकि भक्त तो अपनी बला भगवान् पर टाल देता है। वह भगवान से आर्त स्वर में प्रार्थना करने लगता है। तब भगवान् को भक्त की पुकार सुननी ही पडती है।) श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे भक्त पर यदि किंचित भी दुख पडता है तो मैं उसे तुरंत ही दुख से मुक्त करता हूं। जो दुष्टजन मेरे भक्तों से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन! तू मेरा ही शत्रु समझ। अब तू मेरा भक्त है। अत: तेरी भक्ति के कारण ही मैं तेरा रथ हांक रहा हूं। श्रीकृष्ण बोले कि मेरे भक्त की यदि हार होती है तो उसमें मैं अपनी ही हार समझता हूं और मेरे भक्त की जीत होती है तो उसे मैं अपनी ही जीत समझता हूं। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे अर्जुन! जब मैं यह देखता हूं कि मेरे भक्त को उसका शत्रु परास्त करने ही वाला है, तब मैं इस सुदर्शन चक्र से उसे (भक्त के शत्रु को) नष्ट कर देता हूं।
मैं तो चंद खिलौना लैहौं
मैया मैं तो चंद खिलौना लैहौं।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरभि कौ पय पान करिहौं बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंदबाबा कौ तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहौं।
हंसि समुझावति कहति जसोमति नई दुलहिया दैहौं॥
तेरी सौं मेरी सुनि मैया अबहिं बियाहन जैहौं।
सूरदास ह्वै कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहौं॥
राग केदार पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने बाल हठ का सजीव चित्रण किया है। बालकृष्ण अपनी लीलाओं के तहत यशोदा मैया से चाँद लाकर देने का हठ कर रहे हैं। एक बार श्रीकृष्ण ने आकाश मंडल में उदित चंद्रमा को देख लिया। चंद्रमा को देखने के बाद वह यशोदा से हठ कर बैठे कि मैया मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूंगा। यदि तुम मुझे यह खिलौना नहीं दोगी तो मैं तुम्हारी गोद में नहीं आऊंगा और यहीं धरती पर लोट जाऊंगा। इतना ही नहीं मैं गाय का दूध भी नहीं पिऊंगा और न ही चोटी गुंथवाऊंगा। मैं तुम्हारा पुत्र भी नहीं कहलाऊंगा बल्कि नंदबाबा का पुत्र कहलाऊंगा। जब कृष्ण ने हठ पकड लिया और नहीं माने तब माता यशोदा बोलीं कि अच्छा सुन, कन्हैया मैं तुझे एक बात बतलाती हूं, यह बात मैं बलराम को नहीं बतलाऊंगी। इतना कहकर यशोदा हंसते हुए श्रीकृष्ण से बोलीं कि सुन कन्हैया! मैं तुझे नई दुल्हन ला दूंगी। यशोदा ने जब ऐसा कहा तो कन्हैया चंद्रमा लेने का हठ छोडकर दुल्हन लेने का हठ करने लगे और बोले, मैया तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं दुल्हन को ब्याहने के लिए अभी जाऊंगा। सूरदास यहां अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि श्रीकृष्ण का ब्याह होगा तो मैं कुटिल भी बाराती बनकर जाऊंगा और मंगल गीत गाऊंगा।
जागिए ब्रजराज कुंवर
जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।
कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥
तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।
रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥
विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी।
सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥
राग विभास पर आधारित इस पद में सूरदासजी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे हैं। माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती हैं कि हे ब्रज के राजकुमार! अब जाग जाओ। कमल पुष्प खिल गए हैं तथा कुमुद भी बंद हो गए हैं। (कुमुद रात्रि में ही खिलते हैं, क्योंकि इनका संबंध चंद्रमा से है) भ्रमर कमल-पुष्पों पर मंडाराने लगे हैं। सवेरा होने के प्रतीक मुर्गे बांग देने लगे हैं और पक्षियों व चिडियों का कलरव प्रारंभ हो गया है। सिंह की दहाड सुनाई देने लगी है। गोशाला में गउएं बछडों के लिए रंभा रही हैं अर्थात् दूध दुहने का समय हो गया है। चंद्रमा छुप गया है तथा सूर्य निकल आया है। नर-नारियां प्रात:कालीन गीत गा रहे हैं। अत: हे श्यामसुंदर! अब तुम उठ जाओ। सूरदास कहते हैं कि यशोदा बडी मनुहार करके श्रीगोपाल को जगा रही हैं, जो मंगल करने वाले हैं।
हरि तनु देखि लजानी
उपमा हरि तनु देखि लजानी।
कोउ जल मैं कोउ बननि रहीं दुरि कोउ कोउ गगन समानी॥
मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं तडित दसन-छबि हेरि।
मीन कमल कर चरन नयन डर जल मैं कियौ बसेरि॥
भुजा देखि अहिराज लजाने बिबरनि पैठे धाइ।
कटि निरखत केहरि डर मान्यौ बन-बन रहे दुराइ॥
गारी देहिं कबिनि कैं बरनत श्रीअंग पटतर देत।
सूरदास हमकौं सरमावत नाउं हमारौ लेत॥
भक्त शिरोमणि सूरदासजी अपने इस पद में भगवान् की अतुलनीय शोभा का वर्णन कर रहे हैं। यह पद राग गौरी में निबद्ध है। श्रीकृष्ण की शोभा को देखकर सारी उपमाएं लुप्त हो गई। कोई उपमा जल में जा छिपी तो कोई वन में दुबक गई और कोई-कोई उपमा तो नभमंडल में समा गई। श्रीकृष्ण का मुख देखकर स्वयं को लज्जित जानता हुआ चंद्रमा आकाश में चला गया। इसी प्रकार उनके दांतों की शोभा के आगे स्वयं को लज्जित पाकर बिजली भी आकाश में लुप्त हो गई। मछली, कमल पुष्प ने श्रीकृष्ण के हाथों, पैरों व नेत्रों से भय खाकर जल में ही बसेरा कर लिया। उनकी भुजाओं को देखकर सर्पराज भी लज्जित होकर बिल में जा छिपा। श्रीकृष्ण के कटि भाग की शोभा इतनी मनोहर थी कि उसके आगे स्वयं को लज्जित समझकर सिंह भी वन में चला गया। सूरदास कहते हैं कि जितनी भी उपमाएं हैं वह सब कवियों को गाली देती हैं कि कविगण श्रीप्रभु के अंगों की तुलना उससे देते हैं। इस तरह उनके अंगों के समक्ष हमें लज्जित करते हैं। इसी से मिलता-जुलता पद महाकवि विद्यापति का भी है।
माधव कत तोर करब बडाई।
उपमा करब तोहर ककरा सों कहितहुँ अधिक लजाई॥
अर्थात् भगवान् की तुलना किसी से संभव नहीं है।
पायो परम पदु गात
सबै दिन एक से नहिं जात।
सुमिरन भजन लेहु करि हरि को जों लगि तन कुसलात॥
कबहूं कमला चपल पाइ कै टेढेइ टेढे जात।
कबहुंक आइ परत दिन ऐसे भोजन को बिललात॥
बालापन खेलत ही गंवायो तरुना पे अरसात।
सूरदास स्वामी के सेवत पायो परम पदु गात॥
यह राग घनाक्षरी का पद है। सभी दिन एक से नहीं होते, इसलिए जब तक शरीर में प्राण हैं, भगवान् का सुमिरन और भजन कर लेना चाहिए। लक्ष्मी चंचला होती है, किसी के यहां टिकती नहीं, फिर भी धन प्राप्त हो जाने पर मनुष्य अहंकारी हो जाता है। किंतु कभी ऐसे दिन आ पडते हैं कि मनुष्य भोजन के लिए भी भटकता फिरता है। बाल्यवस्था तो खेल-खेल में ही बीत जाती है। युवावस्था में विषय-वासनाओं में पडकर मनुष्य आलस्य में पडता है और भगवान् का भजन नहीं करता। सूरदास जी कहते हैं कि श्रीहरि की सेवा करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कहां लौं बरनौं सुंदरताई
कहां लौं बरनौं सुंदरताई।
खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥
कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई।
मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुष चढाई॥
अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई।
मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥
नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई।
सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥
दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई।
किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥
खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई।
घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥
राग घनाक्षरी में निबद्ध इस पद में सूरदासजी भगवान् की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मैं बाल कृष्ण की सुंदरता का कहां तक वर्णन करूं। कुंवर कन्हैया स्वर्ण के आंगन में खेल रहे हैं, यह शोभा देखकर नेत्रों को सुख मिलता है। कन्हैया के सिर पर रखी हुई टोपी (कुलही) अनेक सुंदर रंगों में इस प्रकार शोभायमान है, मानो नए बादल पर इंद्रधनुष चढा हो। बालक कृष्ण के मुख पर बिखरे हुए टेढे बाल अत्यंत सुंदर लग रहे हैं और मन को हर लेते हैं। ये ऐसे लगते हैं, मानो सुंदर कमल के ऊपर भौरों की पंक्ति घूम रही हो। उनके मस्तक पर नीला, सफेद, पीला और लाल मणि से जडा हुआ लटकन ऐसा सुंदर लगता है, मानो शनि, बृहस्पति, शुक्र, और मंगल साथ-साथ हों (शिन का प्रतीक नीलम, बृहस्पति का पीला पुखराज, शुक्र का सफेद हीरा और मंगल का लाल मूंगा होता है।) उनके दूध के दांतों की चमक की शोभा एक विचित्र उपमा पाती है। बालक कृष्ण के किलकारी मारते और हंसते समय कभी दांत दिखाई पडते हैं और कभी छिप जाते हैँ। ये इस प्रकार लगते हैं जैसे बादलों में बिजली की छटा हो। उनकी रुक-रुककर निकलने वाली खंडित तोतली बोली अनंत सुख देती है। इस प्रकार घुटनों के बल चलते हुए और शरीर में मिट्टी लपेटे हुए सुशोभित बाल श्रीकृष्ण पर सूरदास जी बलिहारी जाते हैं।
बदन मनोहर गात
सखी री कौन तुम्हारे जात।
राजिव नैन धनुष कर लीन्हे बदन मनोहर गात॥
लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं अंग अंग मुसकात।
अति मृदु चरन पंथ बन बिहरत सुनियत अद्भुत बात॥
सुंदर तन सुकुमार दोउ जन सूर किरिन कुम्हलात।
देखि मनोहर तीनौं मूरति त्रिबिध ताप तन जात॥
राग रामकली पर आधारित इस पद में भक्तकवि सूरदास जी भगवान् राम की छवि का वर्णन कर रहे हैं। राम-लक्ष्मण, सीता जब वन से होकर जा रहे थे तब एक गांव में रुके। उस गांव की स्त्रियों ने सीताजी से पूछा कि सखी! इन दोनों सुंदर कुंवरों में तुम्हारे स्वामी कौन से हैं? तब सीताजी ने संकेत से बताया कि जिनके नेत्र कमलवत हैं तथा जिनका शरीर मनोहर है और धनुष धारण किए हैं, वही मेरे स्वामी हैं। फिर ग्रामीण नारियां आपस में बातें करने लगीं कि यह कैसी विचित्र बात है कि इतने सुंदर, सुकुमार कोमल चरणों से वन में विचरण कर रहे हैं। सूर्य की किरणों से सुंदर शरीर वाले यह सुकुमार कुम्हला जाएंगे। सूरदास कहते हैं कि राम, लक्ष्मण, सीता की मनोहर जोडी को देखकर ग्रामीण नारियों के त्रिविध ताप मिट गए।
औगुन चित न धरौ
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ।
समदरसी है नाम तुहारौ, सोई पार करौ॥
इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परौ।
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ॥
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ।
जब मिलि गए तब एक-वरन ह्वै, सुरसरि नाम परौ॥
तन माया, ज्यौ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ।
कै इनकौ निरधार कीजियै कै प्रन जात टरौ॥
भक्त और भगवान् के बीच कितना मधुर संबंध दर्शाया है राग घनाक्षरी पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने। यह सर्वविदित है कि पूर्णता केवल ईश्वर को प्राप्त है। अपूर्णता के कारण मनुष्य से त्रुटि स्वाभाविक है। इसलिये सूरदास ने भगवान् से अवगुण समाप्त करने नहीं बल्कि इसे हृदय में न धरने की प्रार्थना की है। सूरदासजी कहते हैं - मेरे स्वामी! मेरे दुर्गुणों पर ध्यान मत दीजिये! आपका नाम समदर्शी है, उस नाम के कारण ही मेरा उद्धार कीजिये। एक लोहा पूजा में रखा जाता है (तलवार की पूजा होती है) और एक लोहा (छुरी) कसाई के घर पडा रहता है, किंतु (समदर्शी) पारस इस भेद को नहीं जानता, वह तो दोनों को ही अपना स्पर्श होने पर सच्चा सोना बना देता है। एक नदी कहलाती है और एक नाला, जिसमें गंदा पानी भरा है, किंतु जब दोनों गङ्गाजी में मिल जाते हैं, तब उनका एक-सा रूप होकर गङ्गा नाम पड जाता है। इसी प्रकार सूरदासजी कहते हैं- यह शरीर माया (माया का कार्य) और जीव ब्रह्म (ब्रह्म का अंश) कहा जाता है, किंतु माया के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण वह (ब्रह्मरूप जीव) बिगड गया (अपने स्वरूप से च्युत हो गया।) अब या तो आप इनको पृथक् कर दीजिये (जीव की अहंता-ममता मिटाकर उसे मुक्त कर दीजिये), नहीं तो आपकी (पतितों का उद्धार करने की) प्रतिज्ञा टली (मिटी) जाती है।
नोट :- इस पद की अंतिम दो पंक्तियां कहीं-कहीं इस तरह भी लिखी हैं-
इक जीव इक ब्रह्म कहावत सूरश्याम झगरौ।
अबकी बेर मोहि पार कीजै, कै प्रण जात टरौ॥
राखौ लाज मुरारी
अब मेरी राखौ लाज, मुरारी।
संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी।
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी॥
नाचन-कूदन मृगिनी लागी, चरन-कमल पर वारी।
सूर स्याम प्रभु अबिगतलीला, आपुहि आपु सँवारी॥
जीव हर समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भरोसे सूरदासजी ने भगवान् से संकट दूर करने की विनती की है। वह कहते हैं - हे मुरारी! अब मेरी लाज रख लीजिये। एक संकट तो था ही कि जीव संसार-चक्र में पडा था उसमें एक और संकट उत्पन्न हो गया। बुद्धि भी भ्रम में पड गयी। मृग (परमपद को ढूँढनेवाले जिज्ञासु) से उसकी स्त्री मृगी (बुद्धि) कहती है कि मैं और कुछ नहीं जानती, अत: आपकी शरण में आयी हूँ। (बुद्धि ने इस प्रकार जब जीव का ही आश्रय ले लिया,) तब पवन (प्राण) उलटे चलने लगे (चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख हो गयी) इससे खेत जल गये (जन्म-जन्म के कर्म-संस्कार भस्म हो गये)। खेत का रखवाला कुत्ता (काम) सिर झाडकर चला गया (कामनाएँ नष्ट हो गयीं)। मृगी (बुद्धि) नाचने-कूदने लगी (आनन्दमग्न हो गयी) और चरणकमलों पर न्योछावर हो गयी (भगवान् के चरणों में लग गयी)। सूरदासजी कहते हैं -मेरे स्वामी श्यामसुन्दर की लीला जानी नहीं जाती। अपने-आप ही उन्होंने सेवक की गति सुधार दी (उसे अपना लिया)। यह पद राग मुलतानी-तिताला में बद्ध है।
रतन-सौं जनम गँवायौ
हरि बिनु कोऊ काम न आयौ।
इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥
कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ।
तामैं तैं ततछन ही काढयौ, पल भर रहन न पायौ॥
हौं तब संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ।
चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ॥
बोलि-बेलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ।
पर्यौ जु काज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुडायौ॥
आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड लडायौ।
तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ॥
पतित-उधारन, गनिका-तारन, सौ मैं सठ बिसरायौ।
लियौ न नाम कबहुँ धोखैं हूँ, सूरदास पछितायौ॥
इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हरि भजन करना है। हरि सुमिरन के बिना बीते पल को याद कर वृद्धावस्था में मनुष्य किस तरह व्यथित होता है उसका सांगोपांग चित्रण सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से किया है। वह इस मिथ्यास्वरूप जगत् में एकमात्र भगवान् को ही अपना आधार मानते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रपञ्चो">प्रपञ्चों (संसार की मोह-ममता) में लगकर मैंने रत्न के समान मनुष्य जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बडे परिश्रम से सजाकर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से शरीर तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी सती हो जाऊँगी इस प्रकार कह-कहकर झूठी <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रवञ्चना">प्रवञ्चना करके पत्नी ने मेरा धन खाया, मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुलाकर (उनकी सहायता करके) मैंने बडा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; किंतु अन्त समय में जब काम पडा, तब उन्होंने भी मुझे आकर (मृत्यु से) छुडाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोडों प्रकार से लाड लडाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटिसूत्र) भी तोड लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करनेवाले हैं; गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझ शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। यह पद राग-गूजरी में पर आधारित है।
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत असंगत चाल॥
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अबिद्या दूरि करौ नँदलाल॥
राग-घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदासजी ने माया-तृष्णा में लिपटे मनुष्य की व्यथा का सजीव चित्रण किया है। वह कहते हैं- हे गोपाल! अब मैं बहुत नाच चुका। काम और क्रोध का जामा पहनकर, विषय (चिन्तन) की माला गले में डालकर, महामोहरूपी नूपुर बजाता हुआ, जिनसे निन्दा का रसमय शब्द निकलता है (महामोहग्रस्त होने से निन्दा करने में ही सुख मिलता रहा), नाचता रहा। भ्रम (अज्ञान) से भ्रमित मन ही पखावज (मृदंग) बना। कुसङ्गरूपी चाल मैं चलता हूँ। अनेक प्रकार के ताल देती हुई तृष्णा हृदय के भीतर नाद (शब्द) कर रही है। कमर में माया का फेटा (कमरपट्टा) बाँध रखा है और ललाट पर लोभ का तिलक लगा लिया है। जल और स्थल में (विविध) स्वाँग धारणकर (अनेकों प्रकार से जन्म लेकर) कितने समय से यह तो मुझे स्मरण नहीं (अनादि काल से)- करोडों कलाएँ मैंने भली प्रकार दिखलायी हैं (अनेक प्रकार के कर्म करता रहा हूँ)। हे नन्दलाल! अब तो सूरदास की सभी अविद्या (सारा अज्ञान) दूर कर दो। माया के वशीभूत मनुष्य की स्थिति का इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने सांगोपांग चित्रण किया है। सांसारिक प्रपंचों में पडकर लक्ष्य से भटके जीवों का एकमात्र सहारा ईश्वर ही है।
जनम अकारथ खोइसि
रे मन, जनम अकारथ खोइसि।
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि॥
निसि-दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि।
गोड पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कहा होइसि॥
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि-देखि मुख रोइसि।
सूर स्याम बिनु कौन छुडाये, चले जाव भई पोइसि॥
माया-मोह के वश में पडकर जीवन को व्यर्थ गँवाने के कारण अंत में जो पश्चाताप होता है, उसी का सजीव विवरण इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने किया है। वह कहते हैं - अरे मन! तूने जीवन व्यर्थ खो दिया। श्रीहरि की भक्ति तो कभी की ही नहीं, बस, पेट भरा और पडकर सो रहा (भोजन और निद्रा में ही समय नष्ट किया)। रात-दिन मुँह बाये घूमता रहता हूँ, अहंकार में पडे रहकर ही जीवन नष्ट कर दिया। अब तो दोनों पैर फैलाकर भली प्रकार गिर गया है (पूरा ही पतन हो गया है)। अब बता, (परलोक में) कैसी (दारुण) गति होगी? काल और यमराज से आकर पाला पडा है, लोगों का मुख देख-देखकर अब रोता है। सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के भजन बिना (काल और यमदूतों से) छुडा कौन सकता है? अब दौड-धूप हो चुकी, लडखडाते हुए चले जाओ। यह पद राग सोरठा में है।
मूरख जनम गँवायौ
रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि, हाथ कछू नहिं आयौ॥
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥
विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण राग-धनाश्री में बद्ध इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं - अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा। अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदासजी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है।
अजहूँ चेति अचेत
सबै दिन गए विषय के हेत।
तीनौं पन ऐसैं हीं खोए, केश भए सिर सेत॥
आँखिनि अंध, स्त्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत।
गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि-तजि पूजत प्रेत॥
मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत।
ऐसौ प्रभू छाँडि क्यौं भटकै, अजहूँ चेति अचेत॥
राम नाम बिनु क्यौं छूटौगे, चंद गहैं ज्यौं केत।
सूरदास कछु खरच न लागत, राम नाम मुख लेत॥
राग धनाक्षरी में आबद्ध यह पद सूर विनय पत्रिका से उद्धृत है। भवसागर से पार उतारने में तो रामनाम रूपी नौका ही एकमात्र सहारा है। उस पतित पावन नाम को ही विषय रस में डूब जाने से भुला दिया जाता है। सभी दिन (पूरी आयु) विषयों के लिये (विषय-सेवन में) ही बीत गये। तीनों (बाल्य, किशोर, तारुण्य) अवस्थाएँ ऐसे ही व्यतीत कर दीं और अब बाल सफेद हो गये बुढापा आ गया। आँखों से अंधा हो गया, कानों से सुनायी नहीं पडता, पैरों सहित सभी अङ्ग शिथिल हो गये (कर्मेन्द्रियों की शक्ति भी जाती रही)। गङ्गाजल छोडकर कुएँ का पानी पीता है और श्रीहरि को छोडकर प्रेत (शरीर) की पूजा करता है। (इसके बदले) यदि मन, वाणी तथा कर्म से श्रीश्यामसुन्दर का भजन करे तो वे (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) चारों पदार्थ देते हैं। अरे मूर्ख! ऐसे प्रभु को छोडकर (माया में) क्यों भटक रहा है? अब भी सावधान हो जा! राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान रामनाम लिये बिना (संसार से) तू कैसे छूट सकता है? (यह पुराणों की कथा है कि भगवान् के चक्र के द्वारा डराये जाने पर ही राहु चन्द्रमा या सूर्य को छोडता है।) सूरदासजी कहते हैं कि मुख से रामनाम लेने में कुछ खर्च तो लगता नहीं, फिर भी क्यों नाम नहीं लेता?
आनि सँजोग परै
भावी काहू सौं न टरै।
कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥
मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै।
तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥
रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै।
मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै।
द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै॥
हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै।
जो गृह छाँडि देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै।
सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥
भावी बलवान है अर्थात् विधि का लिखा अमिट है। इसी तथ्य को राग सारंग के माध्यम से सूरदास ने इस पद में दर्शाया है। वह कहते हैं - होनहार (प्रारब्ध) किसी से भी टलती नहीं। कहाँ वह राहु और कहाँ वे सूर्य-चंद्र (बहुत दूरी है इनमें)। किंतु इनका संयोग भी (ग्रहण के समय) आ पडता है। वसिष्ठ मुनि विद्वान् तथा ज्ञानी थे और उन्होंने बहुत श्रम से, सँभालकर भगवान् राम के राज्याभिषेक मुहूर्त निश्चित किया; किंतु (परिणाम यह हुआ कि) श्रीराम के पिता महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, सीताजी का हरण हुआ, श्रीराम को वनवासी वेष धारणकर वनवास का कष्ट झेलना पडा। रावण ने तैंतीसों करोड देवताओं को जीत लिया था और त्रिभुवन पर राज्य कर रहा था, मृत्यु को भी बाँधकर उसने कुएँ में बंद कर रखा था, किंतु प्रारब्धवश वह भी मारा गया। अर्जुन के तो (स्वयं) श्रीहरि ही सारथी थे, पर उन्हें भी वन में निकलना (वनवास भेागना) पडा। राजसभा में द्रौपदी का वस्त्र दु:शासन ने खींचा (यद्यपि द्रौपदी श्रीकृष्ण की परम भक्ता थी)! संसार में हरिश्चन्द्र के समान कौन दानी होगा, पर उन्हें नीच के घर (चाण्डाल के यहाँ) सेवा करनी पडी। यदि कोई घर छोडकर बहुत-से देशों में दौडता (घूमता) फिरे, तो भी उसका प्रारब्ध उसके साथ ही घूमता है। तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और जितने भी देहधारी हैं, सभी होनहार (प्रारब्ध) के वश में हैं। अत: सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु ने जो विधान किया है; वही होगा, (तब) चिन्ता करके कौन मरता रहे।
दियौ अभय पद ठाऊँ
तुम तजि और कौन पै जाउँ।
काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥
ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।
अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥
रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।
कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥
भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥
भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है। सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद राग मलार में निबद्ध है। वह कहते हैं - आपको छोडकर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।
मन धन-धाम धरे
मोसौं पतित न और हरे।
जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥
ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।
बिषई भजे, बिरक्त न सेए, मन धन-धाम धरे॥
ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।
त्यौं मन मूढ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥
ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।
सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥
राग धनाश्री में रचित यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है। महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोडकर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!
मो सम कौन कुटिल खल कामी
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सब के अन्तरजामी॥
जो तन दियौ, ताहि बिसरायौ, ऐसौ, नोन-हरामी।
भरि भरि उदर बिषै कौं धावत, जैसैं सूकर ग्रामी॥
सुनि सतसंग होत जिय आलस, बिषयिनि सँग बिसरामी।
श्रीहरि-चरन छाँडि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी॥
पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितनि में नामी।
सूरदास प्रभु अधम-उधारन सुनियै श्रीपति स्वामी॥
राग जगला-तिताला में आबद्ध इस पद में पतित पावन भगवान् से सूरदासजी कहते हैं कि मेरे समान कुटिल, दुष्ट और कामी कौन है? हे करुणामय! आपसे क्या छिपा है, आप तो अन्तर्यामी (हृदय की बात जाननेवाले) हैं। मैं ऐसा नमकहराम (कृतघ्न) हूँ कि जिस प्रभु ने शरीर दिया, उसको मैंने भुला दिया। गाँव के सूअर की भाँति बार-बार पेट भरकर विषय-भोग के लिये दौडता हूँ। सत्सङ्ग सुनकर वहाँ जाने में आलस्य होता है अथवा सत्सङ्ग में बैठने पर आलस्य, निद्रा आती है और विषयी (संसारासक्त ) लोगों के साथ विश्राम (सुख) मानता हूँ। श्रीहरि के चरणों की सेव
भजि मन नंद नंदन चरन।
परम पंकज अति मनोहर सकल सुख के करन॥
सनक संकर ध्यान धारत निगम आगम बरन।
सेस सारद रिषय नारद संत चिंतन सरन॥
पद-पराग प्रताप दुर्लभ रमा कौ हित करन।
परसि गंगा भई पावन तिहूं पुर धन घरन॥
चित्त चिंतन करत जग अघ हरत तारन तरन।
गए तरि लै नाम केते पतित हरि-पुर धरन॥
जासु पद रज परस गौतम नारि गति उद्धरन।
जासु महिमा प्रगति केवट धोइ पग सिर धरन॥
कृष्न पद मकरंद पावन और नहिं सरबरन।
सूर भजि चरनार बिंदनि मिटै जीवन मरन॥
राग केदार में निबद्ध सूरदास जी का यह भक्तिप्रधान पद है। भगवान् का स्मरण सभी दु:खों का नाश करनेवाला है। इस पद में सूरदास कहते हैं कि अरे मन! नंदपुत्र श्रीकृष्ण (जो विष्णु के अवतार हैं) के चरण कमलों का अब तो भजन कर ले अर्थात् उनका चिंतन कर। श्रीकृष्ण के चरण कैसे हैं.. इन्हीं का वर्णन इस पद में है। उनके चरण कमल के समान व सुख प्रदान करने वाले व मन को हरने वाले हैं। उनके चरणों का ध्यान सनक, सनंदन, सनातन व सनत्कुमार तथा शिव किया करते हैं। जिनकी महिमा का वर्णन वेद-पुराणों में भी किया गया है। इसके अतिरिक्त शेष, शारदा, ऋषि, नारद, संत-महात्मा भी उनके चरणों का ध्यान किया करते हैं। जिनके चरणों के पराग का प्रभाव दुर्लभ है और जो लक्ष्मी के हितकारी हैं, ऐसे विष्णु के चरण कमलों का हे मन! भजन कर। हे मन! तू प्रभु के चरणों का ध्यान कर। जिनके स्पर्श से गंगा पावन हो गई तथा जिन्होंने तीनों लोकों का घर बना दिया। अर्थात् संपन्न कर दिया। हे मन! सृष्टिगत जीवों के पापों का शमन करने वाले उन्हीं प्रभु के चरणों का तू ध्यान कर। उनके चरणों का ध्यान करके या भजन करके कितने ही पापी तर गए अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो गए। जिन प्रभु के चरणों की रज का स्पर्श पाकर गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का उद्धार हो गया तथा जिनके चरणों की महिमा को केवट ने उजागर किया और उन चरणों को धोकर अपने शीश पर धारण किया, उन्हीं श्रीकृष्ण के पवित्र चरणों के मकरंद (मधुर रस) का हे मन! तू पान कर। उससे बढकर अन्य कुछ भी नहीं है। सूरदास कहते हैं कि हे मेरे मूढ मन! तू भगवान् के उन चरणों का वंदन कर जिससे तेरे जन्म-मरण का कष्ट मिट जाए।
बृथा सु जन्म गंवैहैं
जा दिन मन पंछी उडि जैहैं।
ता दिन तेरे तनु तरवर के सबै पात झरि जैहैं॥
या देही को गरब न करिये स्यार काग गिध खैहैं।
तीन नाम तन विष्ठा कृमि ह्वै नातर खाक उडैहैं॥
कहं वह नीर कहं वह सोभा कहं रंग रूप दिखैहैं।
जिन लोगन सों नेह करतु है तेई देखि घिनैहैं॥
घर के कहत सबारे काढो भूत होय घर खैहैं।
जिन पुत्रनहिं बहुत प्रीति पारेउ देवी देव मनैहैं॥
तेइ लै बांस दयौ खोपरी में सीस फाटि बिखरैहैं।
जहूं मूढ करो सतसंगति संतन में कछु पैहैं॥
नर वपु धारि नाहिं जन हरि को यम की मार सुखैहैं।
सूरदास भगवंत भजन बिनु, बृथा सु जन्म गंवैहैं॥
यह संसार नश्वर है। इस मिथ्यास्वरूप जगत् में ईश्वर ही एकमात्र आधार है। इस भवसागर से वही पार कर सकता है। इन्हीं भावनाओं को सूरदासजी ने राग झिंझौटी में आबद्ध इस पद के माध्यम से किया है। वह कहते हैं - हे मानव! जिस दिन मन (आत्मा) रूपी यह पंछी उडान भरेगा उस दिन देह रूपी इस वृक्ष के सभी पत्ते टूटकर बिखर जाएंगे अर्थात् यह शरीर प्राणहीन हो जाएगा। इसलिए इस पंचभौतिक शरीर का तू गर्व न कर। इस शरीर को सियार, गिद्ध व कौवे ही खाएंगे। प्राणहीन होने पर शरीर की तीन ही गतियां होंगी अर्थात् या तो वह विष्ठा रूप हो जाता है या कीडे पड जाते हैं या फिर भस्म बनकर उड जाता है। तब स्नान करना, सजना-संवरना, रंग-रूप सभी नष्ट हो जाएगा। हे मानव! मरने के पश्चात वही लोग तुझसे घृणा करने लगेंगे जिन्हें तू अपना मानकर प्यार किया करता था। ऐसी स्थिति होने पर घर के लोग तुझे घर से निकाल बाहर करेंगे। इस पर भी उनका कथन यह होगा कि कहीं भूत बनकर यह घर को न खा जाए। जिन पुत्रों की प्राप्ति के लिए हे मानव! तूने देवी-देवताओं को मनाया और जिन पुत्रों को तूने लाड-प्यार से पाला वही पुत्र तेरी खोपडी फोडेंगे अर्थात् कपाल क्रिया करेंगे। इसलिए हे मूढ मानव! तू संतों का संग कर। ऐसा करने से तुझे कुछ ज्ञान ही प्राप्त होगा। यदि तूने मनुष्य का चोला धारण करके भी हरि भजन नहीं किया तो मरणोपरांत यम के कोडे खाएगा। सूरदास कहते हैं कि ईश्वर के भजन बिना मनुष्य का यह तन रूपी धन पाना निरर्थक ही है।
मेटि सकै नहिं कोइ
करें गोपाल के सब होइ।
जो अपनौ पुरषारथ मानै अति झूठौ है सोइ॥
साधन मंत्र जंत्र उद्यम बल ये सब डारौं धोइ।
जो कछु लिखि राख्यौ नंद नंदन मेटि सकै नहिं कोइ॥
दुख सुख लाभ अलाभ समुझि तुम कतहि मरत हौ रोइ।
सूरदास स्वामी करुनामय स्याम चरन मन पोइ॥
सूरकृत विनयपत्रिका से उद्धृत यह पद राग घनाक्षरी पर आधारित है। मनुष्य लाख जतन करे लेकिन होता वही है जो भाग्य में लिखा होता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में कहा है कि गोपाल अर्थात् भगवान् जो चाहता है वही होता है। यदि मनुष्य यह गर्व करता है कि उसने श्रम किया था, पुरुषार्थ किया था तभी उसका कार्य सफल हुआ है तो उसका ऐसा गर्व करना मिथ्या है। प्राय: देखा जाता है कि मनुष्य अथक परिश्रम करता है, तब भी उसे उसका पर्याप्त फल नहीं मिलता। क्योंकि उसके भाग्य में में ऐसा लिखा ही नहीं होता। तब फल कैसे मिल सकता है? कभी-कभी इसके विपरीत स्थिति होती है। मनुष्य कुछ भी परिश्रम नहीं करता तब भी उसका अल्प पुरुषार्थ ही सिद्ध हो जाता है। इसी बात को सूरदास ने इस पद में समझाया है। सूरदास कहते हैं कि जितने भी तंत्र-मंत्र आदि साधन हैं, वह सब निरर्थक हैं। वे तो मात्र मन को दिलासा देने के माध्यम मात्र हैं। उनसे कुछ भी होना-जाना नहीं है, अत: भूलकर भी उनका आश्रय मत लो। सत्य तो यह है कि जो कुछ भी भाग्य में विधाता ने लिख दिया है, उसी को भोगना है। उसके लिखे को कोई भी नहीं मिटा सकता। प्राय: देखा गया है कि सृष्टि में जीवादि हानि-लाभ, सुख-दुख को लेकर व्यर्थ का प्रलाप करते रहते हैं। जबकि वह यह नहीं समझते हैं कि भाग्य में ऐसा ही लिखा था। (रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने इस बात को स्पष्ट किया है। हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ अर्थात् हानि, लाभ, जीवन मरण, कीर्ति-अपकीर्ति यह सब विधाता के हाथ में है। तब भी मनुष्य इसके कारण स्वयं को दुखी किए रहता है। इस पद में भी सूरदास इन्हीं बातों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हानि, लाभ, सुख, दुख आदि को विधाता का लेख समझकर बिसरा दो। करुणा के सागर भगवान् के चरणों की शरण ग्रहण करो, इसी से कल्याण होगा।
हम भगतनि के भगत हमारे
हम भगतनि के भगत हमारे।
सुनि अर्जुन परतिग्या मेरी यह ब्रत टरत न टारे॥
भगतनि काज लाज हिय धरि कै पाइ पियादे धाऊं।
जहां जहां पीर परै भगतनि कौं तहां तहां जाइ छुडाऊं॥
जो भगतनि सौं बैर करत है सो निज बैरी मेरौ।
देखि बिचारि भगत हित कारन हौं हांकों रथ तेरौ॥
जीते जीतौं भगत अपने के हारें हारि बिचारौ।
सूरदास सुनि भगत विरोधी चक्र सूदरसन जारौं॥
राग घनाक्षरी में आबद्ध इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने भक्ति की महिमा का बखान किया है। भक्तों के वश में भगवान् होते हैं। यह बात इस पद में बडे ही सहज ढंग से कही गई है। भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए भक्त की महिमा को प्रतिपादित कर रहे हैं। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! सुनो! मैं भक्तों का हूं और भक्त मेरे हैं अर्थात् मेरे और भक्तों के मध्य किसी प्रकार का व्यवधान नहीं है। हे अर्जुन! यह मेरी प्रतिज्ञा है जो टालने पर भी टल नहीं सकती। यदि मेरे भक्त का कोई कार्य बिगडने वाला होता है तो मैं नंगे पैरों दौडकर भी भक्त के उस कार्य को संवारता हूं। इसमें मुझे मेरी ही लाज का विचार रहता है। (यह सत्य भी है क्योंकि भक्त तो अपनी बला भगवान् पर टाल देता है। वह भगवान से आर्त स्वर में प्रार्थना करने लगता है। तब भगवान् को भक्त की पुकार सुननी ही पडती है।) श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मेरे भक्त पर यदि किंचित भी दुख पडता है तो मैं उसे तुरंत ही दुख से मुक्त करता हूं। जो दुष्टजन मेरे भक्तों से शत्रुता रखते हैं, उन्हें हे अर्जुन! तू मेरा ही शत्रु समझ। अब तू मेरा भक्त है। अत: तेरी भक्ति के कारण ही मैं तेरा रथ हांक रहा हूं। श्रीकृष्ण बोले कि मेरे भक्त की यदि हार होती है तो उसमें मैं अपनी ही हार समझता हूं और मेरे भक्त की जीत होती है तो उसे मैं अपनी ही जीत समझता हूं। सूरदास कहते हैं कि श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, हे अर्जुन! जब मैं यह देखता हूं कि मेरे भक्त को उसका शत्रु परास्त करने ही वाला है, तब मैं इस सुदर्शन चक्र से उसे (भक्त के शत्रु को) नष्ट कर देता हूं।
मैं तो चंद खिलौना लैहौं
मैया मैं तो चंद खिलौना लैहौं।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं तेरी गोद न ऐहौं॥
सुरभि कौ पय पान करिहौं बेनी सिर न गुहैहौं।
ह्वै हौं पूत नंदबाबा कौ तेरौ सुत न कहैहौं॥
आगैं आउ बात सुनि मेरी बलदेवहिं न जनैहौं।
हंसि समुझावति कहति जसोमति नई दुलहिया दैहौं॥
तेरी सौं मेरी सुनि मैया अबहिं बियाहन जैहौं।
सूरदास ह्वै कुटिल बराती गीत सुमंगल गैहौं॥
राग केदार पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने बाल हठ का सजीव चित्रण किया है। बालकृष्ण अपनी लीलाओं के तहत यशोदा मैया से चाँद लाकर देने का हठ कर रहे हैं। एक बार श्रीकृष्ण ने आकाश मंडल में उदित चंद्रमा को देख लिया। चंद्रमा को देखने के बाद वह यशोदा से हठ कर बैठे कि मैया मैं तो यह चंद्रमा-खिलौना लूंगा। यदि तुम मुझे यह खिलौना नहीं दोगी तो मैं तुम्हारी गोद में नहीं आऊंगा और यहीं धरती पर लोट जाऊंगा। इतना ही नहीं मैं गाय का दूध भी नहीं पिऊंगा और न ही चोटी गुंथवाऊंगा। मैं तुम्हारा पुत्र भी नहीं कहलाऊंगा बल्कि नंदबाबा का पुत्र कहलाऊंगा। जब कृष्ण ने हठ पकड लिया और नहीं माने तब माता यशोदा बोलीं कि अच्छा सुन, कन्हैया मैं तुझे एक बात बतलाती हूं, यह बात मैं बलराम को नहीं बतलाऊंगी। इतना कहकर यशोदा हंसते हुए श्रीकृष्ण से बोलीं कि सुन कन्हैया! मैं तुझे नई दुल्हन ला दूंगी। यशोदा ने जब ऐसा कहा तो कन्हैया चंद्रमा लेने का हठ छोडकर दुल्हन लेने का हठ करने लगे और बोले, मैया तुम्हारी सौगंध खाकर कहता हूं कि मैं दुल्हन को ब्याहने के लिए अभी जाऊंगा। सूरदास यहां अपने भावों को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि श्रीकृष्ण का ब्याह होगा तो मैं कुटिल भी बाराती बनकर जाऊंगा और मंगल गीत गाऊंगा।
जागिए ब्रजराज कुंवर
जागिए ब्रजराज कुंवर कमल-कुसुम फूले।
कुमुद -बृंद संकुचित भए भृंग लता भूले॥
तमचुर खग करत रोर बोलत बनराई।
रांभति गो खरिकनि मैं बछरा हित धाई॥
विधु मलीन रवि प्रकास गावत नर नारी।
सूर श्रीगोपाल उठौ परम मंगलकारी॥
राग विभास पर आधारित इस पद में सूरदासजी मातृ स्नेह का भाव प्रदर्शित कर रहे हैं। माता यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को सुबह होने पर जगा रही है। वह कहती हैं कि हे ब्रज के राजकुमार! अब जाग जाओ। कमल पुष्प खिल गए हैं तथा कुमुद भी बंद हो गए हैं। (कुमुद रात्रि में ही खिलते हैं, क्योंकि इनका संबंध चंद्रमा से है) भ्रमर कमल-पुष्पों पर मंडाराने लगे हैं। सवेरा होने के प्रतीक मुर्गे बांग देने लगे हैं और पक्षियों व चिडियों का कलरव प्रारंभ हो गया है। सिंह की दहाड सुनाई देने लगी है। गोशाला में गउएं बछडों के लिए रंभा रही हैं अर्थात् दूध दुहने का समय हो गया है। चंद्रमा छुप गया है तथा सूर्य निकल आया है। नर-नारियां प्रात:कालीन गीत गा रहे हैं। अत: हे श्यामसुंदर! अब तुम उठ जाओ। सूरदास कहते हैं कि यशोदा बडी मनुहार करके श्रीगोपाल को जगा रही हैं, जो मंगल करने वाले हैं।
हरि तनु देखि लजानी
उपमा हरि तनु देखि लजानी।
कोउ जल मैं कोउ बननि रहीं दुरि कोउ कोउ गगन समानी॥
मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं तडित दसन-छबि हेरि।
मीन कमल कर चरन नयन डर जल मैं कियौ बसेरि॥
भुजा देखि अहिराज लजाने बिबरनि पैठे धाइ।
कटि निरखत केहरि डर मान्यौ बन-बन रहे दुराइ॥
गारी देहिं कबिनि कैं बरनत श्रीअंग पटतर देत।
सूरदास हमकौं सरमावत नाउं हमारौ लेत॥
भक्त शिरोमणि सूरदासजी अपने इस पद में भगवान् की अतुलनीय शोभा का वर्णन कर रहे हैं। यह पद राग गौरी में निबद्ध है। श्रीकृष्ण की शोभा को देखकर सारी उपमाएं लुप्त हो गई। कोई उपमा जल में जा छिपी तो कोई वन में दुबक गई और कोई-कोई उपमा तो नभमंडल में समा गई। श्रीकृष्ण का मुख देखकर स्वयं को लज्जित जानता हुआ चंद्रमा आकाश में चला गया। इसी प्रकार उनके दांतों की शोभा के आगे स्वयं को लज्जित पाकर बिजली भी आकाश में लुप्त हो गई। मछली, कमल पुष्प ने श्रीकृष्ण के हाथों, पैरों व नेत्रों से भय खाकर जल में ही बसेरा कर लिया। उनकी भुजाओं को देखकर सर्पराज भी लज्जित होकर बिल में जा छिपा। श्रीकृष्ण के कटि भाग की शोभा इतनी मनोहर थी कि उसके आगे स्वयं को लज्जित समझकर सिंह भी वन में चला गया। सूरदास कहते हैं कि जितनी भी उपमाएं हैं वह सब कवियों को गाली देती हैं कि कविगण श्रीप्रभु के अंगों की तुलना उससे देते हैं। इस तरह उनके अंगों के समक्ष हमें लज्जित करते हैं। इसी से मिलता-जुलता पद महाकवि विद्यापति का भी है।
माधव कत तोर करब बडाई।
उपमा करब तोहर ककरा सों कहितहुँ अधिक लजाई॥
अर्थात् भगवान् की तुलना किसी से संभव नहीं है।
पायो परम पदु गात
सबै दिन एक से नहिं जात।
सुमिरन भजन लेहु करि हरि को जों लगि तन कुसलात॥
कबहूं कमला चपल पाइ कै टेढेइ टेढे जात।
कबहुंक आइ परत दिन ऐसे भोजन को बिललात॥
बालापन खेलत ही गंवायो तरुना पे अरसात।
सूरदास स्वामी के सेवत पायो परम पदु गात॥
यह राग घनाक्षरी का पद है। सभी दिन एक से नहीं होते, इसलिए जब तक शरीर में प्राण हैं, भगवान् का सुमिरन और भजन कर लेना चाहिए। लक्ष्मी चंचला होती है, किसी के यहां टिकती नहीं, फिर भी धन प्राप्त हो जाने पर मनुष्य अहंकारी हो जाता है। किंतु कभी ऐसे दिन आ पडते हैं कि मनुष्य भोजन के लिए भी भटकता फिरता है। बाल्यवस्था तो खेल-खेल में ही बीत जाती है। युवावस्था में विषय-वासनाओं में पडकर मनुष्य आलस्य में पडता है और भगवान् का भजन नहीं करता। सूरदास जी कहते हैं कि श्रीहरि की सेवा करने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कहां लौं बरनौं सुंदरताई
कहां लौं बरनौं सुंदरताई।
खेलत कुंवर कनक-आंगन मैं नैन निरखि छबि पाई॥
कुलही लसति सिर स्याम सुंदर कैं बहु बिधि सुरंग बनाई।
मानौ नव धन ऊपर राजत मघवा धनुष चढाई॥
अति सुदेस मन हरत कुटिल कच मोहन मुख बगराई।
मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई॥
नील सेत अरु पीत लाल मनि लटकन भाल रुलाई।
सनि गुरु-असुर देवगुरु मिलि मनु भौम सहित समुदाई॥
दूध दंत दुति कहि न जाति कछु अद्भुत उपमा पाई।
किलकत-हंसत दुरति प्रगटति मनु धन में बिज्जु छटाई॥
खंडित बचन देत पूरन सुख अलप-अलप जलपाई।
घुटुरुनि चलन रेनु-तन-मंडित सूरदास बलि जाई॥
राग घनाक्षरी में निबद्ध इस पद में सूरदासजी भगवान् की सुंदरता का वर्णन कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मैं बाल कृष्ण की सुंदरता का कहां तक वर्णन करूं। कुंवर कन्हैया स्वर्ण के आंगन में खेल रहे हैं, यह शोभा देखकर नेत्रों को सुख मिलता है। कन्हैया के सिर पर रखी हुई टोपी (कुलही) अनेक सुंदर रंगों में इस प्रकार शोभायमान है, मानो नए बादल पर इंद्रधनुष चढा हो। बालक कृष्ण के मुख पर बिखरे हुए टेढे बाल अत्यंत सुंदर लग रहे हैं और मन को हर लेते हैं। ये ऐसे लगते हैं, मानो सुंदर कमल के ऊपर भौरों की पंक्ति घूम रही हो। उनके मस्तक पर नीला, सफेद, पीला और लाल मणि से जडा हुआ लटकन ऐसा सुंदर लगता है, मानो शनि, बृहस्पति, शुक्र, और मंगल साथ-साथ हों (शिन का प्रतीक नीलम, बृहस्पति का पीला पुखराज, शुक्र का सफेद हीरा और मंगल का लाल मूंगा होता है।) उनके दूध के दांतों की चमक की शोभा एक विचित्र उपमा पाती है। बालक कृष्ण के किलकारी मारते और हंसते समय कभी दांत दिखाई पडते हैं और कभी छिप जाते हैँ। ये इस प्रकार लगते हैं जैसे बादलों में बिजली की छटा हो। उनकी रुक-रुककर निकलने वाली खंडित तोतली बोली अनंत सुख देती है। इस प्रकार घुटनों के बल चलते हुए और शरीर में मिट्टी लपेटे हुए सुशोभित बाल श्रीकृष्ण पर सूरदास जी बलिहारी जाते हैं।
बदन मनोहर गात
सखी री कौन तुम्हारे जात।
राजिव नैन धनुष कर लीन्हे बदन मनोहर गात॥
लज्जित होहिं पुरबधू पूछैं अंग अंग मुसकात।
अति मृदु चरन पंथ बन बिहरत सुनियत अद्भुत बात॥
सुंदर तन सुकुमार दोउ जन सूर किरिन कुम्हलात।
देखि मनोहर तीनौं मूरति त्रिबिध ताप तन जात॥
राग रामकली पर आधारित इस पद में भक्तकवि सूरदास जी भगवान् राम की छवि का वर्णन कर रहे हैं। राम-लक्ष्मण, सीता जब वन से होकर जा रहे थे तब एक गांव में रुके। उस गांव की स्त्रियों ने सीताजी से पूछा कि सखी! इन दोनों सुंदर कुंवरों में तुम्हारे स्वामी कौन से हैं? तब सीताजी ने संकेत से बताया कि जिनके नेत्र कमलवत हैं तथा जिनका शरीर मनोहर है और धनुष धारण किए हैं, वही मेरे स्वामी हैं। फिर ग्रामीण नारियां आपस में बातें करने लगीं कि यह कैसी विचित्र बात है कि इतने सुंदर, सुकुमार कोमल चरणों से वन में विचरण कर रहे हैं। सूर्य की किरणों से सुंदर शरीर वाले यह सुकुमार कुम्हला जाएंगे। सूरदास कहते हैं कि राम, लक्ष्मण, सीता की मनोहर जोडी को देखकर ग्रामीण नारियों के त्रिविध ताप मिट गए।
औगुन चित न धरौ
हमारे प्रभु, औगुन चित न धरौ।
समदरसी है नाम तुहारौ, सोई पार करौ॥
इक लोहा पूजा में राखत, इक घर बधिक परौ।
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ॥
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ।
जब मिलि गए तब एक-वरन ह्वै, सुरसरि नाम परौ॥
तन माया, ज्यौ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ।
कै इनकौ निरधार कीजियै कै प्रन जात टरौ॥
भक्त और भगवान् के बीच कितना मधुर संबंध दर्शाया है राग घनाक्षरी पर आधारित इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने। यह सर्वविदित है कि पूर्णता केवल ईश्वर को प्राप्त है। अपूर्णता के कारण मनुष्य से त्रुटि स्वाभाविक है। इसलिये सूरदास ने भगवान् से अवगुण समाप्त करने नहीं बल्कि इसे हृदय में न धरने की प्रार्थना की है। सूरदासजी कहते हैं - मेरे स्वामी! मेरे दुर्गुणों पर ध्यान मत दीजिये! आपका नाम समदर्शी है, उस नाम के कारण ही मेरा उद्धार कीजिये। एक लोहा पूजा में रखा जाता है (तलवार की पूजा होती है) और एक लोहा (छुरी) कसाई के घर पडा रहता है, किंतु (समदर्शी) पारस इस भेद को नहीं जानता, वह तो दोनों को ही अपना स्पर्श होने पर सच्चा सोना बना देता है। एक नदी कहलाती है और एक नाला, जिसमें गंदा पानी भरा है, किंतु जब दोनों गङ्गाजी में मिल जाते हैं, तब उनका एक-सा रूप होकर गङ्गा नाम पड जाता है। इसी प्रकार सूरदासजी कहते हैं- यह शरीर माया (माया का कार्य) और जीव ब्रह्म (ब्रह्म का अंश) कहा जाता है, किंतु माया के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण वह (ब्रह्मरूप जीव) बिगड गया (अपने स्वरूप से च्युत हो गया।) अब या तो आप इनको पृथक् कर दीजिये (जीव की अहंता-ममता मिटाकर उसे मुक्त कर दीजिये), नहीं तो आपकी (पतितों का उद्धार करने की) प्रतिज्ञा टली (मिटी) जाती है।
नोट :- इस पद की अंतिम दो पंक्तियां कहीं-कहीं इस तरह भी लिखी हैं-
इक जीव इक ब्रह्म कहावत सूरश्याम झगरौ।
अबकी बेर मोहि पार कीजै, कै प्रण जात टरौ॥
राखौ लाज मुरारी
अब मेरी राखौ लाज, मुरारी।
संकट में इक संकट उपजौ, कहै मिरग सौं नारी॥
और कछू हम जानति नाहीं, आई सरन तिहारी।
उलटि पवन जब बावर जरियौ, स्वान चल्यौ सिर झारी॥
नाचन-कूदन मृगिनी लागी, चरन-कमल पर वारी।
सूर स्याम प्रभु अबिगतलीला, आपुहि आपु सँवारी॥
जीव हर समय संकट में घिरा होता है और भगवान् हर समय अपने भक्तों को संकट से उबारने के लिये तत्पर रहते हैं। इसी भरोसे सूरदासजी ने भगवान् से संकट दूर करने की विनती की है। वह कहते हैं - हे मुरारी! अब मेरी लाज रख लीजिये। एक संकट तो था ही कि जीव संसार-चक्र में पडा था उसमें एक और संकट उत्पन्न हो गया। बुद्धि भी भ्रम में पड गयी। मृग (परमपद को ढूँढनेवाले जिज्ञासु) से उसकी स्त्री मृगी (बुद्धि) कहती है कि मैं और कुछ नहीं जानती, अत: आपकी शरण में आयी हूँ। (बुद्धि ने इस प्रकार जब जीव का ही आश्रय ले लिया,) तब पवन (प्राण) उलटे चलने लगे (चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख हो गयी) इससे खेत जल गये (जन्म-जन्म के कर्म-संस्कार भस्म हो गये)। खेत का रखवाला कुत्ता (काम) सिर झाडकर चला गया (कामनाएँ नष्ट हो गयीं)। मृगी (बुद्धि) नाचने-कूदने लगी (आनन्दमग्न हो गयी) और चरणकमलों पर न्योछावर हो गयी (भगवान् के चरणों में लग गयी)। सूरदासजी कहते हैं -मेरे स्वामी श्यामसुन्दर की लीला जानी नहीं जाती। अपने-आप ही उन्होंने सेवक की गति सुधार दी (उसे अपना लिया)। यह पद राग मुलतानी-तिताला में बद्ध है।
रतन-सौं जनम गँवायौ
हरि बिनु कोऊ काम न आयौ।
इहि माया झूठी प्रपंच लगि, रतन-सौं जनम गँवायौ॥
कंचन कलस, बिचित्र चित्र करि, रचि-पचि भवन बनायौ।
तामैं तैं ततछन ही काढयौ, पल भर रहन न पायौ॥
हौं तब संग जरौंगी, यौं कहि, तिया धूति धन खायौ।
चलत रही चित चोरि, मोरि मुख, एक न पग पहुँचायौ॥
बोलि-बेलि सुत-स्वजन-मित्रजन, लीन्यौ सुजस सुहायौ।
पर्यौ जु काज अंत की बिरियाँ, तिनहुँ न आनि छुडायौ॥
आसा करि-करि जननी जायौ, कोटिक लाड लडायौ।
तोरि लयौ कटिहू कौ डोरा, तापर बदन जरायौ॥
पतित-उधारन, गनिका-तारन, सौ मैं सठ बिसरायौ।
लियौ न नाम कबहुँ धोखैं हूँ, सूरदास पछितायौ॥
इस जीवन का मुख्य उद्देश्य हरि भजन करना है। हरि सुमिरन के बिना बीते पल को याद कर वृद्धावस्था में मनुष्य किस तरह व्यथित होता है उसका सांगोपांग चित्रण सूरदास जी ने इस पद के माध्यम से किया है। वह इस मिथ्यास्वरूप जगत् में एकमात्र भगवान् को ही अपना आधार मानते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि के बिना कोई काम नहीं आया। इस झूठी माया के <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रपञ्चो">प्रपञ्चों (संसार की मोह-ममता) में लगकर मैंने रत्न के समान मनुष्य जीवन खो दिया। जिस पर स्वर्ण-कलश चढाया था और जिसमें विचित्र चित्रकारी करायी गयी थी, ऐसे भवन को बडे परिश्रम से सजाकर बनवाया था; किंतु (प्राण निकलते ही) उस भवन में से शरीर तत्काल निकाल दिया गया, एक पल भी उसमें रह नहीं सका। मैं तुम्हारे साथ ही जलूँगी सती हो जाऊँगी इस प्रकार कह-कहकर झूठी <न् द्धह्मद्गद्घ="द्वड्डद्बद्यह्लश्र:प्रवञ्चना">प्रवञ्चना करके पत्नी ने मेरा धन खाया, मेरी सम्पत्ति का उपभोग किया। वह चित्त चुराते हुए चला करती थी, किंतु (प्राण निकल जाने पर) उसने मुँह फेर लिया और एक पग भी नहीं पहुँचाया। पुत्रों, सगे-सम्बन्धियों और मित्रों को बुला-बुलाकर (उनकी सहायता करके) मैंने बडा सुहावना सुयश प्राप्त किया था; किंतु अन्त समय में जब काम पडा, तब उन्होंने भी मुझे आकर (मृत्यु से) छुडाया नहीं। बहुत-सी आशाएँ करके माता ने जन्म दिया था और करोडों प्रकार से लाड लडाया (प्यार किया) था, किंतु (मरने पर पुत्र ने) उसके कमर का धागा (कटिसूत्र) भी तोड लिया और इस पर भी उसका मुख जला दिया (मुख में अग्नि दी)। जो पतितों का उद्धार करनेवाले हैं; गणिका को (भी) जिन्होंने मुक्त कर दिया, मुझ शठ ने उन प्रभु को भुला दिया। कभी धोखे में भी उनका नाम नहीं लिया। यह पद राग-गूजरी में पर आधारित है।
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल
अब मैं नाच्यौ बहुत गुपाल।
काम-क्रोध कौ पहिरि चोलना, कंठ बिषय की माल॥
महामोह के नूपुर बाजत, निंदा सबद रसाल।
भ्रम-भोयौ मन भयौ, पखावज, चलत असंगत चाल॥
तृष्ना नाद करति घट भीतर, नाना विधि दै ताल।
माया कौ कटि फेंटा बाँध्यौ, लोभ-तिलक दियौ भाल॥
कोटिक कला काछि दिखराई जल-थल सुधि नहिं काल।
सूरदास की सबै अबिद्या दूरि करौ नँदलाल॥
राग-घनाक्षरी में बद्ध इस पद में सूरदासजी ने माया-तृष्णा में लिपटे मनुष्य की व्यथा का सजीव चित्रण किया है। वह कहते हैं- हे गोपाल! अब मैं बहुत नाच चुका। काम और क्रोध का जामा पहनकर, विषय (चिन्तन) की माला गले में डालकर, महामोहरूपी नूपुर बजाता हुआ, जिनसे निन्दा का रसमय शब्द निकलता है (महामोहग्रस्त होने से निन्दा करने में ही सुख मिलता रहा), नाचता रहा। भ्रम (अज्ञान) से भ्रमित मन ही पखावज (मृदंग) बना। कुसङ्गरूपी चाल मैं चलता हूँ। अनेक प्रकार के ताल देती हुई तृष्णा हृदय के भीतर नाद (शब्द) कर रही है। कमर में माया का फेटा (कमरपट्टा) बाँध रखा है और ललाट पर लोभ का तिलक लगा लिया है। जल और स्थल में (विविध) स्वाँग धारणकर (अनेकों प्रकार से जन्म लेकर) कितने समय से यह तो मुझे स्मरण नहीं (अनादि काल से)- करोडों कलाएँ मैंने भली प्रकार दिखलायी हैं (अनेक प्रकार के कर्म करता रहा हूँ)। हे नन्दलाल! अब तो सूरदास की सभी अविद्या (सारा अज्ञान) दूर कर दो। माया के वशीभूत मनुष्य की स्थिति का इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने सांगोपांग चित्रण किया है। सांसारिक प्रपंचों में पडकर लक्ष्य से भटके जीवों का एकमात्र सहारा ईश्वर ही है।
जनम अकारथ खोइसि
रे मन, जनम अकारथ खोइसि।
हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि॥
निसि-दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि।
गोड पसारि परयो दोउ नीकैं, अब कैसी कहा होइसि॥
काल जमनि सौं आनि बनी है, देखि-देखि मुख रोइसि।
सूर स्याम बिनु कौन छुडाये, चले जाव भई पोइसि॥
माया-मोह के वश में पडकर जीवन को व्यर्थ गँवाने के कारण अंत में जो पश्चाताप होता है, उसी का सजीव विवरण इस पद के माध्यम से सूरदासजी ने किया है। वह कहते हैं - अरे मन! तूने जीवन व्यर्थ खो दिया। श्रीहरि की भक्ति तो कभी की ही नहीं, बस, पेट भरा और पडकर सो रहा (भोजन और निद्रा में ही समय नष्ट किया)। रात-दिन मुँह बाये घूमता रहता हूँ, अहंकार में पडे रहकर ही जीवन नष्ट कर दिया। अब तो दोनों पैर फैलाकर भली प्रकार गिर गया है (पूरा ही पतन हो गया है)। अब बता, (परलोक में) कैसी (दारुण) गति होगी? काल और यमराज से आकर पाला पडा है, लोगों का मुख देख-देखकर अब रोता है। सूरदासजी कहते हैं कि श्यामसुन्दर के भजन बिना (काल और यमदूतों से) छुडा कौन सकता है? अब दौड-धूप हो चुकी, लडखडाते हुए चले जाओ। यह पद राग सोरठा में है।
मूरख जनम गँवायौ
रे मन मूरख, जनम गँवायौ।
करि अभिमान विषय-रस गीध्यौ, स्याम सरन नहिं आयौ॥
यह संसार सुवा-सेमर ज्यौं, सुन्दर देखि लुभायौ।
चाखन लाग्यौ रुई गई उडि, हाथ कछू नहिं आयौ॥
कहा होत अब के पछिताऐं, पहिलैं पाप कमायौ।
कहत सूर भगवंत भजन बिनु, सिर धुनि-धुनि पछितायौ॥
विषय रस में जीवन बिताने पर अंत समय में जीव को बहुत पश्चाताप होता है। इसी का विवरण राग-धनाश्री में बद्ध इस पद के माध्यम से किया गया है। सूरदास कहते हैं - अरे मूर्ख मन! तूने जीवन खो दिया। अभिमान करके विषय-सुखों में लिप्त रहा, श्यामसुन्दर की शरण में नहीं आया। तोते के समान इस संसाररूपी सेमर वृक्ष के फल को सुन्दर देखकर उस पर लुब्ध हो गया। परन्तु जब स्वाद लेने चला, तब रुई उड गयी (भोगों की नि:सारता प्रकट हो गयी,) तेरे हाथ कुछ भी (शान्ति, सुख, संतोष) नहीं लगा। अब पश्चाताप करने से क्या होता है, पहले तो पाप कमाया (पापकर्म किया) है। सूरदासजी कहते हैं- भगवान् का भजन न करने से सिर पीट-पीटकर (भली प्रकार) पश्चात्ताप करता है।
अजहूँ चेति अचेत
सबै दिन गए विषय के हेत।
तीनौं पन ऐसैं हीं खोए, केश भए सिर सेत॥
आँखिनि अंध, स्त्रवन नहिं सुनियत, थाके चरन समेत।
गंगा-जल तजि पियत कूप-जल, हरि-तजि पूजत प्रेत॥
मन-बच-क्रम जौ भजै स्याम कौं, चारि पदारथ देत।
ऐसौ प्रभू छाँडि क्यौं भटकै, अजहूँ चेति अचेत॥
राम नाम बिनु क्यौं छूटौगे, चंद गहैं ज्यौं केत।
सूरदास कछु खरच न लागत, राम नाम मुख लेत॥
राग धनाक्षरी में आबद्ध यह पद सूर विनय पत्रिका से उद्धृत है। भवसागर से पार उतारने में तो रामनाम रूपी नौका ही एकमात्र सहारा है। उस पतित पावन नाम को ही विषय रस में डूब जाने से भुला दिया जाता है। सभी दिन (पूरी आयु) विषयों के लिये (विषय-सेवन में) ही बीत गये। तीनों (बाल्य, किशोर, तारुण्य) अवस्थाएँ ऐसे ही व्यतीत कर दीं और अब बाल सफेद हो गये बुढापा आ गया। आँखों से अंधा हो गया, कानों से सुनायी नहीं पडता, पैरों सहित सभी अङ्ग शिथिल हो गये (कर्मेन्द्रियों की शक्ति भी जाती रही)। गङ्गाजल छोडकर कुएँ का पानी पीता है और श्रीहरि को छोडकर प्रेत (शरीर) की पूजा करता है। (इसके बदले) यदि मन, वाणी तथा कर्म से श्रीश्यामसुन्दर का भजन करे तो वे (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) चारों पदार्थ देते हैं। अरे मूर्ख! ऐसे प्रभु को छोडकर (माया में) क्यों भटक रहा है? अब भी सावधान हो जा! राहुग्रस्त चन्द्रमा के समान रामनाम लिये बिना (संसार से) तू कैसे छूट सकता है? (यह पुराणों की कथा है कि भगवान् के चक्र के द्वारा डराये जाने पर ही राहु चन्द्रमा या सूर्य को छोडता है।) सूरदासजी कहते हैं कि मुख से रामनाम लेने में कुछ खर्च तो लगता नहीं, फिर भी क्यों नाम नहीं लेता?
आनि सँजोग परै
भावी काहू सौं न टरै।
कहँ वह राहु, कहाँ वे रबि-ससि, आनि सँजोग परै॥
मुनि वसिष्ट पंडित अति ज्ञानी, रचि-पचि लगन धरै।
तात-मरन, सिय हरन, राम बन बपु धरि बिपति भरै॥
रावन जीति कोटि तैंतीसा, त्रिभुवन-राज करै।
मृत्युहि बाँधि कूप मैं राखै, भावी बस सो मरै॥
अरजुन के हरि हुते सारथी, सोऊ बन निकरै।
द्रुपद-सुता कौ राजसभा, दुस्सासन चीर हरै॥
हरीचंद-सौ को जग दाता, सो घर नीच भरै।
जो गृह छाँडि देस बहु धावै, तऊ वह संग फिरै॥
भावी कैं बस तीन लोक हैं, सुर नर देह धरै।
सूरदास प्रभु रची सु हैहै, को करि सोच मरै॥
भावी बलवान है अर्थात् विधि का लिखा अमिट है। इसी तथ्य को राग सारंग के माध्यम से सूरदास ने इस पद में दर्शाया है। वह कहते हैं - होनहार (प्रारब्ध) किसी से भी टलती नहीं। कहाँ वह राहु और कहाँ वे सूर्य-चंद्र (बहुत दूरी है इनमें)। किंतु इनका संयोग भी (ग्रहण के समय) आ पडता है। वसिष्ठ मुनि विद्वान् तथा ज्ञानी थे और उन्होंने बहुत श्रम से, सँभालकर भगवान् राम के राज्याभिषेक मुहूर्त निश्चित किया; किंतु (परिणाम यह हुआ कि) श्रीराम के पिता महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, सीताजी का हरण हुआ, श्रीराम को वनवासी वेष धारणकर वनवास का कष्ट झेलना पडा। रावण ने तैंतीसों करोड देवताओं को जीत लिया था और त्रिभुवन पर राज्य कर रहा था, मृत्यु को भी बाँधकर उसने कुएँ में बंद कर रखा था, किंतु प्रारब्धवश वह भी मारा गया। अर्जुन के तो (स्वयं) श्रीहरि ही सारथी थे, पर उन्हें भी वन में निकलना (वनवास भेागना) पडा। राजसभा में द्रौपदी का वस्त्र दु:शासन ने खींचा (यद्यपि द्रौपदी श्रीकृष्ण की परम भक्ता थी)! संसार में हरिश्चन्द्र के समान कौन दानी होगा, पर उन्हें नीच के घर (चाण्डाल के यहाँ) सेवा करनी पडी। यदि कोई घर छोडकर बहुत-से देशों में दौडता (घूमता) फिरे, तो भी उसका प्रारब्ध उसके साथ ही घूमता है। तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और जितने भी देहधारी हैं, सभी होनहार (प्रारब्ध) के वश में हैं। अत: सूरदासजी कहते हैं कि प्रभु ने जो विधान किया है; वही होगा, (तब) चिन्ता करके कौन मरता रहे।
दियौ अभय पद ठाऊँ
तुम तजि और कौन पै जाउँ।
काकैं द्वार जाइ सिर नाऊँ, पर हथ कहाँ बिकाउँ॥
ऐसौ को दाता है समरथ, जाके दियें अघाउँ।
अन्त काल तुम्हरैं सुमिरन गति, अनत कहूँ नहिं दाउँ॥
रंक सुदामा कियौ अजाची, दियौ अभय पद ठाउँ।
कामधेनु, चिंतामनि दीन्हौं, कल्पवृच्छ-तर छाउँ॥
भव-समुद्र अति देखि भयानक, मन में अधिक डराउँ।
कीजै कृपा सुमिरि अपनौ प्रन, सूरदास बलि जाउँ॥
भगवान् के सिवा और कौन सहारा हो सकता है। सूरकृत विनय पत्रिका से उद्धृत यह पद राग मलार में निबद्ध है। वह कहते हैं - आपको छोडकर और किसके पास जाऊँ? किसके दरवाजे पर जाकर मस्तक झुकाऊँ? दूसरे किसके हाथ अपने को बेचूँ? ऐसा दूसरा कौन समर्थ दाता है, जिसके देने से मैं तृप्त होऊँ? अन्तिम समय में (मृत्यु के समय) एकमात्र आपके स्मरण से ही गति (उद्धार सम्भव) है, और कहीं भी स्थान नहीं है। कंगाल सुदामा को आपने अयाचक (मालामाल) कर दिया और अभयपद (वैकुण्ठ) में उन्हें स्थान दिया। उन्हें कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष की छाया प्रदान की (कल्पवृक्ष भी उनके यहाँ लगा दिया)। अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्र को देखकर मैं अपने मन में बहुत डर रहा हूँ। यह सूरदास आप पर न्यौछावर है, अपने (पतित-पावन) प्रण को स्मरण करके कृपा कीजिये।
मन धन-धाम धरे
मोसौं पतित न और हरे।
जानत हौ प्रभु अंतरजामी, जे मैं कर्म करे॥
ऐसौं अंध, अधम, अबिबेकी, खोटनि करत खरे।
बिषई भजे, बिरक्त न सेए, मन धन-धाम धरे॥
ज्यौं माखी मृगमद-मंडित-तन परिहरि, पूय परे।
त्यौं मन मूढ बिषय-गुंजा गहि, चिंतामनि बिसरै॥
ऐसे और पतित अवलंबित, ते छिन लाज तरे।
सूर पतित तुम पतित-उधारन, बिरद कि लाज धरे॥
राग धनाश्री में रचित यह पद दुर्लभ भक्तिभाव को दर्शाता है। महात्मा सूरदास भगवान् को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिये अपने को महानतम पतित बताने से भी संकोच नहीं करते हैं। वह कहते हैं - श्रीहरि! मेरे समान पतित और कोई नहीं है। हे प्रभु! आप अन्तर्यामी हैं; मैंने जो कर्म किये हैं, उन्हें आप जानते ही हैं। मैं ऐसा अंधा (अज्ञानी), अधम, विचारहीन हूँ कि असत्य (भोगों) को भी सत्य कहता (मानता) हूँ। मैंने विषयी पुरुषों की सेवा की; किंतु विरक्त संतों की सेवा नहीं की। धन और भवन में मन लगाये रहा। जैसे मक्खी कस्तूरी से उपलिप्त शरीर को छोडकर दुर्गधयुक्त पीब आदि पर बैठती है, वैसे ही मेरा मूर्ख मन विषय-भोगरूपी गुंजा को लेकर (भगवन्नामरूपी) चिन्तामणि को भूल गया। ऐसे दूसरे भी पतित हुए हैं, जो आप पर अवलम्बित होने से (आपकी शरण लेने से) एक क्षण में तर गये (मुक्त हो गये)। सूरदास कहते हैं कि आप पतितों का उद्धार करनेवाले हैं, इस अपने सुयश की लज्जा कीजिये, अपने सुयश की रक्षा के लिये मेरा उद्धार कीजिये!
मो सम कौन कुटिल खल कामी
मो सम कौन कुटिल खल कामी।
तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सब के अन्तरजामी॥
जो तन दियौ, ताहि बिसरायौ, ऐसौ, नोन-हरामी।
भरि भरि उदर बिषै कौं धावत, जैसैं सूकर ग्रामी॥
सुनि सतसंग होत जिय आलस, बिषयिनि सँग बिसरामी।
श्रीहरि-चरन छाँडि बिमुखनि की निसि-दिन करत गुलामी॥
पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितनि में नामी।
सूरदास प्रभु अधम-उधारन सुनियै श्रीपति स्वामी॥
राग जगला-तिताला में आबद्ध इस पद में पतित पावन भगवान् से सूरदासजी कहते हैं कि मेरे समान कुटिल, दुष्ट और कामी कौन है? हे करुणामय! आपसे क्या छिपा है, आप तो अन्तर्यामी (हृदय की बात जाननेवाले) हैं। मैं ऐसा नमकहराम (कृतघ्न) हूँ कि जिस प्रभु ने शरीर दिया, उसको मैंने भुला दिया। गाँव के सूअर की भाँति बार-बार पेट भरकर विषय-भोग के लिये दौडता हूँ। सत्सङ्ग सुनकर वहाँ जाने में आलस्य होता है अथवा सत्सङ्ग में बैठने पर आलस्य, निद्रा आती है और विषयी (संसारासक्त ) लोगों के साथ विश्राम (सुख) मानता हूँ। श्रीहरि के चरणों की सेव
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